मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और प्रधानमंत्री को 30 दिन की गिरफ्तारी की स्थिति में पद से बर्खास्त करने वाले विधेयकों और संवैधानिक संशोधन पर गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को विपक्षी दलों ने बड़ा झटका दिया। तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने इस जेपीसी का हिस्सा बनने से साफ इनकार कर दिया। टीएमसी का बहिष्कार पहले से तय माना जा रहा था, लेकिन सपा के कदम ने विपक्षी खेमे में हलचल मचा दी है।जेपीसी के बहिष्कार के बाद इन समितियों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.
टीएमसी सांसद डेरेक ओ’ब्रायन ने जेपीसी को सिरे से खारिज करते हुए कहा, “मोदी गठबंधन एक असंवैधानिक बिल की जांच के लिए जेपीसी बना रहा है। यह सब एक नाटक है और हमें इसे नाटक ही कहना था। मुझे खुशी है कि हमने यह कदम उठाया है।”
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी टीएमसी का साथ देते हुए कहा, “विधेयक का विचार ही गलत है। जिसने यह बिल पेश किया (गृह मंत्री अमित शाह) उन्होंने खुद कई बार कहा है कि उन पर झूठे केस लगाए गए थे। अगर कोई भी किसी पर फर्जी केस डाल सकता है तो फिर इस बिल का मतलब क्या है?”अब कांग्रेस पर भी विपक्षी एकजुटता के नाम पर दबाव बढ़ रहा है। कांग्रेस अब तक जेपीसी में शामिल होने के पक्ष में झुकी हुई थी, लेकिन सपा के रुख से पार्टी के भीतर संशय गहरा गया है.
सपा प्रमुख ने विधेयकों को भारत के संघीय ढांचे से टकराने वाला करार दिया। उन्होंने कहा, “जैसे यूपी में हुआ मुख्यमंत्री अपने राज्यों में दर्ज आपराधिक मामले वापस ले सकते हैं। केंद्र का इस पर कोई नियंत्रण नहीं होगा क्योंकि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। केंद्र सिर्फ उन्हीं मामलों में दखल दे पाएगा जो केंद्रीय एजेंसियों जैसे सीबीआई, ईडी आदि द्वारा दर्ज हों।”
डेरेक ओ’ब्रायन ने जेपीसी की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुए कहा कि पहले इसे जनहित और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक सशक्त तंत्र के रूप में देखा जाता था। उन्होंने कहा, “2014 के बाद से जेपीसी की भूमिका काफी हद तक खोखली हो गई है। सरकारें इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने लगी हैं, विपक्ष के संशोधन खारिज किए जाते हैं और बहस महज औपचारिकता बनकर रह गई है।”
विपक्षी दल टीएमसी के बहिष्कार को लेकर पहले से तैयार थे, लेकिन सपा के कदम ने असमंजस पैदा कर दिया है। कई दलों का मानना है कि संसदीय समितियों में हुई बहस अदालत की सुनवाई और जनमत निर्माण में अहम साबित होती है। लेकिन सपा के बहिष्कार ने विपक्ष की सामूहिक आवाज को कमजोर किया है.
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक भारत में 2014 से 25 अगस्त 2025 तक संसद द्वारा गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी)को कुल 10 विधेयक भेजे गए हैं। जेपीसी एक अस्थायी समिति होती है, जो विवादास्पद या जटिल विधेयकों की विस्तृत जांच के लिए दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) से सदस्यों के साथ गठित की जाती है। 16वीं लोकसभा (2014-2019) में कुल 133 विधेयक पारित हुए, जिनमें से 25 प्रतिशत को विभिन्न समितियों (जेपीसी सहित) को भेजा गया था। 17वीं लोकसभा (2019-2024) में 16 प्रतिशशत विधेयक समितियों को भेजे गए, जिसमें जेपीसी को 4 विधेयक मिले। 18वीं लोकसभा में अब तक 3 विधेयक जेपीसी को भेजे गए हैं।
विधेयकों की सूची (वर्षानुसार)
भाजपा सरकार बनने के बाद 2014 से 2025 तक जेपीसी को भेजे गए प्रमुख विधेयकों में भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक 2015,नागरिटता संशोधन विधेयक 2016,वित्तीय सुरक्षा हितों को लागू करने और कर्ज वसूली से जुड़ा विधेयक 2016,दिवालिया और दिवालियापन संहिता। जेपीसी ने इसे मजबूत बनाने की सिफारिश की।वित्तीय संकल्प और जमा बीमा विधेयक 2017
व्यक्तिगत डेटा संरक्षणविधेयक 2019। गोपनीयता संबंधी चिंताओं के कारण जेपीसी को भेजा गयाजैव विविधता संशोधन। विधेयक 2021 पर्यावरण विशेषज्ञों की राय लेने के लिए जेपीसी को भेजे गये.
इसके अलावा जन विश्वास संशोधन विधेयक 2022। दंड प्रावधानों को सरल बनाने के लिए बहु-राज्य सहकारी समितियां संशोधन विधेयक 2023। सहकारी क्षेत्र सुधार के लिए।वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023। वन क्षेत्रों के उपयोग पर विवाद के कारणजेपीसी को भेजे गए.
मौजूदा 18वीं लोकसभा के प्रारंभिक सत्रों में (जून 2024 से अगस्त 2025 तक) तीन और विधेयक जेपीसी को भेजे गए हैं, इनमे- वक्फ संपत्ति सुधार विधेयक 2024 प्रमुख है. इस जेपीसी में जमकर हाथापाई हुई.जेपीसी ने जनवरी 2025 में रिपोर्ट सौंपीऔर सरकार ने कानून भी बना दिया जो अभी सुप्रीम कोर्ट में फैसले का इंतजार कर रहा है. मोदी सरकार ने इसके बावजूद 129 और 130 वां संविधान संशोधन विधेयक, केंद्रीय परिक्षेत्र संशोधन विधेयक 2024भी जेपीसी की झोली में डाल दिया. 'वन नेशन, वन इलेक्शन' विधेयक 2024 जेपीसी के पास है ही.
सरकार ने जो ताजा विधेयक जेपीसी को भेजा है वो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को आपराधिक मामलों में जेल जाने पर हटाने से जुड़ा है.
कुल विधेयक 2014 से अब तक लगभग 300 पारित हुए, लेकिन जेपीसी केवल विवादास्पद मामलों में।विशेषज्ञों कहना है कि मोदी सरकार में यूपीए या उससे पहले की सरकारों के मुकाबले जेपीसी का उपयोग कम हुआ क्योंकि अधिकांश विधेयक सीधे पारित या स्टैंडिंग कमेटी को भेजे गए। उदाहरण के लिए सरोगेसी बिल को सेलेक्ट कमेटी भेजा गया, न कि जेपीसी।
जेपीसी को भेजे गए विधेयक आमतौर पर समिति की रिपोर्ट के बाद संशोधनों के साथ संसद में विचार-विमर्श के लिए लाए जाते हैं। अधिकांश मामलों में, विधेयक पास हो जाते हैं, लेकिन कुछ लैप्स हो जाते हैं या वापस ले लिए जाते हैं।
जैपसे हिंदू विवाह और विच्छेद विधेयक, 1952 दो साल बाद 1954 में जेपीसी को भेजा गया जो बाद में समिति ने रिपोर्ट आने पर कुछ संशोधनों के साथ 1955 में पास हुआ।विशेष विवाह विधेयक 1952 भी 1954 में जेपीसी को भेजा गया और रिपोर्ट के बाद 1954 में पास हुआ।
सवाल ये है कि सरकार जेपीसी को ढाल बनाने के बजाय विधेयकों पर संसद में खुलकर बहस क्यों नहीं करातीं? सरकार ध्वनिमत से या हंगामें के बीच कोई विधेयक क्यों पारित कराना चाहती हे. विगत 21अगस्त 2025को समाप्त हुए संसद के मानसून सत्र में यही हुआ. 130 वें संविधान संशोधन विधेयक को छोड शेष आधा दर्जन विधेयक हंगामें में बिना बहस के पास करा लिए गये और वे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून भी बन गये.
@ राकेश अचल
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