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शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

गर मेरे मत पै आंच आएगी तो हुकूमत पै आंच आएगी

 

गर मेरे मत पै आंच आएगी 

तो हुकूमत पै आंच आएगी 

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झोपडी को जलाओ मत वरना

बाद में छत पै आंच आएगी

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खेल अस्मत का खेलना छोडो 

बचना, इज्जत पै आंच आएगी 

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गलतियां तुम करोगे बदले में 

माँबदौलत पै आंच आएगी

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नफरतों को हवा न दो फिर से

फिर मोहब्बत पै आंच आएगी

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कोई दीवार से नहीं लडता

बस इबारत पै आंच आएगी 

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मुँह छुपाओगे कैसे बतलाओ 

जब तिजारत पै आंच आएगी

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हम तो बच जाएंगे, हमारा क्या

सिर्फ हजरत पै आंच आएगी

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@  राकेश अचल

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

क्या फिर से '-हिंदी- चीनी भाई- भाई करने चीन जा रहे हैं मोदीजी .?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  गुड खाते हैं लेकिन गुलगुलों (गुड और आटे से बना पकवान )से नेम ( परहेज) करते हैं. इसका सबसे बडा उदाहरण ये है कि प्रधानमंत्री जी ने आपरेशन सिंदूर पर संसद में बहस के जबाब में सप्रयास चीन का नाम अपनी जबान पर नहीं आने दिया, जबकि विपक्ष ने बार - बार  आपरेशन सिंदूर के दौरान चीन द्वारा पाकिस्तान की मदद करने का आरोप लगाया था. अब खबर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी 31 अगस्त से 1 सितंबर तक शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन का दौरा करेंगे। 

आधिकारिक जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री एससीओ बैठक में भाग लेने से पहले,  30 अगस्त को जापान की यात्रा पर जाएंगे, जहां वे जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के साथ वार्षिक भारत-जापान शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। वहीं से चीन रवाना होंगे। 2020 में गलवान घाटी में हुई झड़प के बाद यह उनकी पहली चीन यात्रा होगी।  इसी मुद्दे पर लोकसभा में  विपक्ष के नेता राहुल गांधी को छिछोरी मानसिकता का नेता कहा गया और चीन पर भारत की जमीन हथियाने का आरोप लगाने पर सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने राहुल को झूठा भारतीय तक कह दिया.

आपको याद होगा कि  प्रधानमंत्री मोदी आखिरी बार 2019 में चीन के दौरे पर गये थे.प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब डोनाल्ड ट्रंप ने ब्रिक्स देशों पर रूस से तेल खरीदने के लिए निशाना साधा हैऔर भारत पर बिना डील हुए ही 25 फीसदी टैरिफ तथा जुर्माना लगा दिया है.। अमेरिकी राष्ट्रपति का दावा है कि यह समूह डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देता है। भारत और चीन दोनों ही ब्रिक्स के सदस्य देश हैं।

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) एक प्रमुख क्षेत्रीय संगठन है, जिसमें भारत, चीन, रूस, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे देश शामिल हैं। यह संगठन क्षेत्रीय सुरक्षा, आतंकवाद विरोधी सहयोग, व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे मुद्दों पर केंद्रित है। इस साल का शिखर सम्मेलन 31 अगस्त से 1 सितंबर तक तियानजिन में आयोजित होगा, जिसमें 20 से अधिक देशों के नेता और 10 अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुख भागलेंगे. इस संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक में पिछले दिनों भारत ने संयुक्त वक्तव्य पर दस्तखत नहीं किए थे. विदेश मंत्री एस जयशंकर  के बाद रक्षामंत्री राजनाथ सिंह भी चीन से खाली हाथ लौट चुके हैं.चीन के राष्ट्रपति  से मिल भी नहीं पाए थे. अब कहा जा रहा है कि , इस शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच एक द्विपक्षीय मुलाकात हो सकती है.दोनों नेता आखिरी बार अक्टूबर 2024 में रूस में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान मिले थे।

भारत का बच्चा बच्चा जानता है कि 2020 में गलवान घाटी में हुए सैन्य टकराव के बाद भारत और चीन के संबंधों में तनाव आ गया था। हालांकि, हाल के महीनों में दोनों देशों ने अपनी सीमा पर तनाव कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं। हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री मोदी चीनी सामान के बहिष्कार का वैसा ही खोखला आव्हान कर चुके हैं जैसा उन्होने हाल ही में बनारस में अमरीकी माल के बहिष्कार का आव्हान किया है. मजे की बात ये कि मोदी स्वदेशी को ढाल बनाए हैं लेकिन वे गलती से भी चीन या अमेरिका  का नाम नहीं लेते. मेरा मानना है कि मोदीजी अमेरिका के दबाब से राहत की तलाश में चीन जा जरूर रहे हैं किंतु ये वही चीन है जो मोदीजी के प्रिय शत्रु देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की पीठ में छुरा घोंप चुका है.

जाहिर है मोदीजी चीन जाकर भारत की चीन द्वारा हथियाई गई भूमि मांगने नहीं जा रहे. वे चीन की ओर से भारत के पडोसी नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका को दी जाने वाली इमदाद का विरोध करने भी चीन नहीं जा रहे. मुमकिन है कि वे अमेरिका के खिलाफ चीन से मदद मांगने जा रहे हों. मुमकिन है कि वे नेहरू जी का नारा -' हिंदी चीनी भाई -भाई ' दोहराने जा रहे हों.यदि वे ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो वे एक और बडी कूटनीतिक गलती करने वाले हैं. चीन कभी भारत का सगा नही हो सकता. चीन भारत के शत्रु पाकिस्तान का मित्र है. हमारा मित्र रूस है जो हमसे क्षुब्ध है. बेहतर होता कि मोदी जी चीन के साथ पेंग बढाने के बजाय रुस की यात्रा करते. क्योंकि रूस भी अमेरिका पीडित राष्ट्र है. चीन अमेरिका पीडित राष्ट्र नहीं है. चीन अमेरिका का प्रबल प्रतिद्वंदी है.

बहरहाल भारत की विदेशनीति की बखिया उधेड चुके मोदीजी जी भारत को किस मोड पर ले जाकर छोडेंगे ये भगवान भी नहीं जानता. वे भेडिया आया, भेडिया आया की आवाज बाऋ बार लगाते हैं लेकिन हर बार दोस्तों को परेशान करते हैं. किंतु अबकी भेडिया सचमुच आ रहा है और मोदीजी की पुकार सुनकर कोई उनकी यानि भारत की मदद करने नहीं आ रहा.

@ राकेश अचल

बुधवार, 6 अगस्त 2025

मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा

 

साल 1988 में पियूष पांडे द्वारा लिखा गया ये गीत पंद्रह भाषाओं में गाया गया. राग भैरवी का ये गीत आज के राजनीतिक परिदृश्य पर पूरी तरह से खरा उतर रहा है. बीते रोज आपरेशन सिंदूर का श्रेय सरे आम सत्ता द्वारा लूटे जाने और सच्चा भारतीय को लेकर देश की सबसे बडी अदालत के एक मीलार्ड द्वारा राहुल गांधी को लेकर की गई मौखिक टिप्पणी के बाद प्रमाणित हो गया कि भाजपा और संघ के सुरों में सुर मिलाने के लिए अब कोई बचा नहीं है. यदि कोई सुर में सुर नहीं मिला रहा है तो वो राष्ट्रद्रोही और झूठा भारतीय है.

किसी भी देश में सत्ता के साथ जब कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के साथ साथ जब खबरपालिका भी वृंदगान गाने लगे तो समझ लीजिये कि वहाँ लोकतंत्र और विरोध के लिए कोई जगह नहीं बची. भाजपा और संघ को इस मुकाम तक आने में पूरी एक सदी लगी. सौ साल का आर एस एस और 45 साल की भाजपा देश को तिरंगा स्पिरिट से सिंदूरी स्पिरिट में ढालने की कोशिश करती दिखाई दे रही है. पियूष पांडे ने यही तो लिखा था 

मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा

सुर की नदियाँ हर दिशा से बहते सागर में मिलें

बादलों का रूप ले कर बरसे हल्के हल्के.

मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा.

और अब यही होता दिख रहा है. अब आप न्याय की अर्जी लेकर अदालत जाएंगे तो वहां साखामृग बैठे मिलेंगे. पुलिस थाना, कचहरी पंचायत  सब पर साखामृगों का कब्जा हो चुका है. तोता-मैना, कौए, उल्लू सब साखाओं का उत्पाद हैं. ये वे लोग हैं जो असफलताओं के लिए महात्मा गांधी से लेकर डॉ मनमोहन सिंह को दोषी ठहराने में नहीं हिचकते. आपरेशन सिंदूर की कामयाबी का श्रेय भी इन सबने मिलकर माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की झोली में डाल दिया. वे बेचारे दरबारियों के आगे ना- ना- ना करते रह गये.मोदीजी की विनम्रता देखकर विनम्रता भी लजा गई.

अब न कांग्रेस का युग है न जनतापार्टी का, न अटल युग है न अडवाणी युग. ये युग मोदी और अडानी का युग है. इस युग की स्पिरिट सिंदूरी है और सवाल करने की सख्त मुमानियत है. आप न संसद में सवाल कर सकते हैं न सडक पर और पत्रकार वार्ताएं इस युग में वर्जित हैं. ये वो युग है जिसमें सवाल करना राष्ट्रद्रोह जैसा असंज्ञेय अपराध है. आप यदि भूले से भी चीन का नाम लेकर कोई सवाल करेंगे तो अकेली भाजपा ही नही बल्कि देश की सबसे बडी अदालत के मीलार्ड तक आपको झूठा भारतीय बताने में नहीं हिचकेंगे.

मोदी युग की पहचान ही हिचकविहीन है. इस युग में कोई भी बिना हिचके असंवैधानिक इलेक्टोरल बांड के जरिये अरबों- खरबों कमा सकता है. बेहिचके महाभ्रष्ट को अपनी गोद में बैठाकर मंत्री बना सकता है और असहमत होने पर संबंधित को लोयागति या धनकड गति प्रदान करा सकता है. हिचक इस युग से कोसों दूर हिमालय की कंदराओं में जाकर छिप गई है इस युग की सत्ता को माँ या बाबा के रूठने से कोई फर्क नहीं पडता.

मोदी युग आजादी के बाद का अकेला ऐसा युग है जिसमें तमाम संवैधानिक संस्थाओं को पालतू तोता-मैना बना दिया गया है. इन संस्थाओं में जो समझदार लोग थे वे बगुला भगत बन गये हैं और जो प्रतिकार कर रहे हैं उन्हे सत्ताप्रतिष्ठान ने काक या श्वान घोषित कर दिया है. इस युग में सत्यमेव जयते की तख्ती तो लगी है किंतु पीछे से झूठ को संरक्षित किया जा रहा है. जो जितना बडा झूठ जितनी ज्यादा बेहयाई से बोलता है उसे उतना बडा देशभक्त माना जाता है. मै तो महाभारत के संजय की तरह बिना नमक-मिर्च लगाए आपके सामने आंखों देखा हाल पेश कर रहा हूँ. इस युग में हमारी या हम जैसों की तो कोई भूमिका रह ही नही गई.

बहरहाल सुर में सुर मिलाना ठकुरसुहाती माना जाता है. ठकुसुहाती करने से तो त्रेता में मंथरा ने भी करने से मना कर दिया था, लेकिन जब उसे सत्ता की केकैयी ने आंखैं दिखाई तो थोडी देर के लिए उसने भी कह दिया था कि-कोऊ नृप होय हमें का हानि, हमऊ करब अब ठकुरसुहाती.मंथरा ने जो बात केकैयी के लिए कही थी वो मोदी युग पर फबती है.

कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥

हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती 

लेकिन हम मंथरा की तरह मौन रहने  या ठकुरसुहाती करने वाले नहीं. हम बोलेंगे भले ही कोई हमें झूठा भारतीय कहे या कुछ और. किसी के कहने से न हम फिरंगी हो जाएंगे और न देशद्रोही. हमें देश की चिंता औरों से कहीं ज्यादा है.

@ राकेश अचल

रविवार, 27 जुलाई 2025

अराजकता की ओर बढता भारत, ब्रेक कौन लगाएगा?

 

यदि आप भारत में हैं तो आप कानून को ठेंगे पर रख सकते हैं. किसी को भी सडक चलते पीट सकते हैं, पिट सकते हैं. कहीं भी पेशाब कर सकते हैं, कहीं भी थूक सकते हैं. कहीं भी अपना वाहन खडा कर सकते हैं. क्योंकि भारत में राम  राज आ चुका है. छोटे मोटे कानून तो आपके खिलाफ इस्तेमाल ही नहीं हो सकते. यहाँ तक कि आप किसी भी मंत्री को, नेता को जान से मारने की धमकी आसानी से दे सकते हैं.

ताजा खबर है कि केंद्रीय रक्षा राज्यमंत्री और रांची के सांसद संजय सेठ को जान से मारने की धमकी मिली है। शुक्रवार को फोन करके उन्हें

धमकी दी गई है ।धमकी देने वाले का पता नहीं चला है। फिलहाल पुलिस इसका पता लगा रही है।

केंद्रीय मंत्री और रांची से सांसद संजय सेठ को जान से मारने की धमकी मिलने के बाद सूचना पुलिस को दी गई। पुलिस को सूचना मिलने के बाद हड़कंप मच गया। पुलिस ने तुरंत ऐक्शन लेते हुए जांच शुरू कर दी है। धमकी देने वाले आरोपी की तलाश की जा रही है।संजय सेठ रांची से भारतीय जानता पार्टी के संसद हैं. साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने जीत दर्ज की थी. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने दोबारा जीत दर्ज की. इसका इनाम उन्हें मंत्रीपद के रूप में मिला. 

सेठ तो सेठ ठहरे मप्र विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रह चुके डॉ गोविन्द सिंह को भी किसी ने फोन कर जान से मारने की धमकी दे डाली. मप्र पुलिस भी इस धमकी को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं है. पूरे देश में यही आलम है. आप दो पक्षों के बीच सरेराह होने वाले झगडे में बीचबचाव नहीं कर सकते. ग्वालियर में एक ऐसे ही मामले में गुंडों ने एक हैडकानेस्टबल का सिर फोड दिया. एक सब इंसपेक्टर ने भोपाल में दो लडकियों के साथ सरेआम अभद्रता की, लेकिन कुछ नहीं हुआ.

हमारे यहां कानून का कोई इकबाल नहीं. हमारी सरकार, हमारी शिक्षा पद्यतिपिछले आठ दशक में आम आदमी को सडक पर बांयी तरफ चलना नहीं सिखा पायी, ऊपर से तुर्रा ये कि हम विश्व गुरु बनने वाले हैं.

देखने में बात बहुत हलकी लगती है लेकिन है बहुत बडी. बडी इसलिए कि ये छोटे छोटे कानूनों की अनदेखी हमें लगातार असभ्य बना रही है. इसी से घबडाकर सालाना दो लाख से अधिक भारतीय विदेशों की नागरिकत ले रहे हैं. किंतु सरकार को, भाजपा को और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कोई परवाह नहीं. उन्हे तो हिंदू राष्ट्र बनाना है, भले ही देश अराजक हालात में पहुंच जाए.

मेरी पक्की धारणा है कि हम भारतीय शायद ही सभ्य हो पाएंगे. असभ्यता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. कानून का मान मर्दन हमारे लिए मात्र मनोरंजन है. मनोरंजन के सिवा कुछ नहीं.

महाराष्ट्र में आप हिंदी न बोलने पर पीटे जा सकते हैं. मराठियों के बारे में बोलने पर बडबोले निशिकांत दुबे को भी महाराष्ट्र आने पर पीटने की धमकी दी जा सकती है. संघ प्रमुख जब खुद डर के भीतर अपने आप को असुरक्षित समझते हैं. वे सार्वजनिक रूप से डर की बात कह चुके हैं. बिहार में एक के बाद हत्या की वारदात हो चुकी हैं लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं है. बदलाव नही है.

प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्रव्यापी स्वच्छता अभियान चलवाया, 12करोड से ज्यादा घरों में शौचालय बनवा दिए लेकिन नतीजा सिफर है. वजह है हमारी मानसिकता, हमारी दंडप्रणाली. हम कचरा फेंकने, सडक किनारे पेशाब या शौच करने या सार्वजनिक स्थानों पर थूकने या धूम्रपान करने को अपराध मानते ही नहीं, हालांकि हमारे कानून के अनुसार ये सब दंडनीय अपराध हैं.

विदेश से स्वदेश की धरती पर पांव रखते ही हमें गंदगी के दर्शन हो जाते है. हवाई अड्डे के बाहर निकलते ही गंदगी और दुर्गंध हमारा स्वागत करती है. सडकों के दोनों और खडी खरपतवार और गंदगी के ढेर हमारे सौंदर्यबोध का मुजाहिरा करते हैं. इस सबके लिए अकेले मोदीजी जिम्मेदार नहीं हैं. नेहरू भी जिम्मेदार हैं, इंदिरा गांधी भी जिम्मेदार हैं.हम सब जिम्मेदार हैं.पुलिस, अदालत, स्थानीय निकाय, स्कूल, सब इस अराजकता के लिए दोषी हैं. ईश्वर से प्रार्थना है कि वो हमारे जन प्रतिनिधियों की रक्षा करे धमकीबाजों से.

@ राकेश अचल

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

आखिर क्या है उपराष्ट्रपति धनकड के इस्तीफ़ा का सच

जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से अचानक इस्तीफा दे दिया. उन्होंने अपने इस्तीफे में सेहत का हवाला दिया है. जबकि सोमवार को मानसून सत्र के पहला दिन वह  पूरी तरह सक्रिय दिखे.उन्होंने  पूरे दिन सदन को अच्छे से चलाया भी. मगर अचानक शाम को  जगदीप धनखड़ ने इस्तीफा दे दिया? उनके इस्तीफे ने सभी को चौंकाया है. सत्ता पक्ष के तमाम सांसदों को भी इसकी भनक नहीं लगी. धनकड के पीछे सच में सेहत है या इसके पीछे सत्तारूढ दल की कोई सियासत ये कहना बहुत कठिन है.

दरअसल, जगदीप धनखड़ के इस्‍तीफे की टाइमिंग को लेकर सवाल उठ रहे हैं. विपक्ष से लेकर तमाम लोगों को उनके अचानक इस्तीफे की बात पच नहीं रही.देश के इतिहास में पहली बार हुआ है कि संसद के चलते सत्र में किसी उपराष्ट्रपति ने इस्तीफा दिया हो.चलते सत्र में केंद्रीय मंत्रियों के इस्तीफे तो हुए हैं लेकिन कोई उपराष्ट्रपति इस्तीफा देकर घर जा रहा हो, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.

देश इस्तीफे का इंतजार तो लंबे अरसे से कर रहा है लेकिन ये इस्तीफा प्रधानमंत्री का होना था, वे न देते तो गृहमंत्री या रक्षामंत्री या विदेश मंत्री का होना था, लेकिन ये सब आलोचनाओं के बवंडर के सामने टिके हैं किंतु धनकड़ साहब ने इस्तीफा दे दिया.संसद के मानसून सत्र के पहले दिन के समापन के कुछ घंटों बाद आए जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने राजनीतिक हलकों में हलचल  है. विपक्ष को क्या किसी भी पक्ष को धनकड का इस्तीफा हजम नहीं हो रहा है. जगदीप धनखड़ के इस फैसले की टाइमिंग को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं. सवाल है कि आखिर उन्होंने पहले दिन के सत्र के बाद इस्तीफा क्यों दिया? अगर उन्हें अपनी सेहत की चिंता थी तो संसद के मानसून सत्र से पहले भी दे सकते थे? उन्होंने अगर अपना इस्तीफा देने का मन बना भी लिया था तो उन्होंने मानसून सत्र का पहला दिन ही क्यों चुना? 

धनकड ने घाट घाट का पानी पिया है. वे दो दल छोडकर भाजपा में आए हैं भाजपा ने उन्हे पहले बंगाल का राज्यपाल और बाद में देश का उपराष्ट्रपति बनाया. धनकड ने दोनों ही पदों पर भाजपा प्रचारक प्रवक्ता की तरह तमाम बेशर्मी के साथ काम किया. आलोचनाएं सहीं और आगे बढते रहे. भाजपा  और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के प्रति धनकड की निष्ठा पर किसी को कोई संदेह नहीं कर सकता, लेकिन अब लग रहा है कि दाल में कुछ काला जरूर है. केवल सेहत इस इस्तीफे की इकलौती वजह नहीं हो सकती.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड की आत्मा पिछले एक दशक से बेशर्मी के पत्थरों के नीचे दबी कराह रही थी. मुझे नही लगता कि धनकड ने अपनी आत्मा और शरीर को बचाने के लिए इस्तीफ़ा दिया होगा. निश्चित ही धनकड बलि का बकरा बनाए गये हैं. क्यों बनाए गये हैं ये तत्काल उदघाटित करना संभव नहीं है. अन्यथा पद पर रहकर धनकड की जितनी बेहतर  देखभाल हो सकती है वो पद से हटने के बाद संभव नहीं है.

कांग्रेस का मानना है कि उपराष्ट्रपति धनखड़ स्वस्थ हैं. कांग्रेस के अखिलेश प्रसाद सिंह, प्रमोद तिवारी और जयराम रमेश ने उपराष्ट्रपति से सोमवार की शाम 5.45 बजे जगदीप धनखड़ से मुलाकात की थी. उनके अनुसार उपराष्ट्रपति स्वस्थ थे. जगदीप धनखड़ के सेहत वाले दावे पर कई विशेषज्ञ और विपक्षी नेता संदेह जता रहे हैं. खास बात ये है कि जगदीप धनखड़ का 23 जुलाई को जयपुर प्रस्तावित दौरा भी  रद्द नहीं किया गया.अटकलें लगाईं  जा रहीं हैं कि यह शीर्ष नेतृत्व के साथ किसी टकराव का नतीजा हो सकता है. अटकल ये भी है कि उपराष्ट्रपति भी पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक की तरह किसानों  के मुद्दे पर सरकार से नाराज थे?

आपको बता दूं कि माननीय. जगदीप धनखड़ की उम्र 74 साल है. धनखड़ ने अगस्त 2022 में उपराष्ट्रपति का पद संभाला था, और उनका कार्यकाल 2027 तक था. इससे पहले वह पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे थे. उनके कार्यकाल में उनके बेबाक बयानों और विपक्ष के साथ तनाव ने कई बार सुर्खियां बटोरीं. विपक्ष ने उन पर राज्यसभा में पक्षपात का आरोप भी लगाया था.. धनकड का इस्तीफा मंजूर होगा ही क्योंकि ये इस्तीफा वापस लेने के लिए नहीं दिया गया है. मुझे लगता है कि संघ, भाजपा और प्रधानमंत्री के लिए धनकड़ की उपयोगिता ही समाप्त हो गई थी. धनकड में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे अपने इस्तीफे की असली  वजह देश को बता सकें. वे भी देश की आम जनता और दूसरे लोगों की तरह सरकार से भयभीत हैंं. धनकड ने दुर्गति से बचने के लिए ही रणछोड़ बनना पसंद किया है. मेरी उनके प्रति पूरी सहानुभूति है.

@ राकेश अचल

सोमवार, 21 जुलाई 2025

कांवड यात्रा का इतना विद्रुप चेहरा !

भक्ति और आस्था में सराबोर, कांवड़  यात्रा शुरु तो हो गई है लेकिन इस बार ये यात्रा और यात्री पहले से ज्यादा उग्र, तथा अराजक हैं. दिल्ली से हरिद्वार जाने वाले इन भक्तों में कुछ, एक बार फिर हिंसा और उपद्रव के ज़रिए इस धार्मिक यात्रा को हिंदू उग्रवाद की पहचान देने की कोशिश कर रहे हैं. पूरे कांवड़ पथ पर कांवड़ियों द्वारा हिंसा, उपद्रव और मारपीट की घटनाएं चर्चा में हैं.लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को कांवडिये मासूम लगते हैं, उनकी नजर में उपद्रवी कोई दूसरे लोग हैं, दूसरे लोगों से उनका आशय आप समझ सकते हैं.

कांवड यात्रा को एक राजकीय आयोजन बनाने वालों को नजर नहीं आता कि उपद्रवी कोई कांग्रेसी, सपाई या बसपाई नहीं बल्कि वे हिंदुत्ववादी संगठन हैं जो हिंदुत्व के ठेकेदार बन बैठे हैं.जिन्होंने कांवड़ पथ पर एक अलग हंगामा खड़ा कर दिया है. कांवड़ियों के रास्ते में पड़ने वाले ढाबों और ठेलों पर लगी नेम प्लेट और उनके मालिकों की धार्मिक पहचान उजागर करने को लेकर विवाद पैदा किया जा रहा है.28 जून की है जब मुजफ्फरनगर के ‘पंडित जी’ ढाबे पर कथित तौर पर एक कर्मचारी की पैंट उतरवाकर धर्म जानने की कोशिश की गई. वहीं 8 जुलाई को मुजफ्फरनगर के ही बाबा बालकनाथ ढाबे पर कावड़ियों ने तोड़फोड़ की. बाबा बालकनाथ ढाबे में एक कांवड़िये के खाने में गलती से प्याज का टुकड़ा निकल आया था. जिसके बाद आक्रोशित कांवड़ियों ने ढाबे में पड़ी कुर्सिया़, मेज़, फ्रिज, पंखे और ग्लास पैनल इत्यादि तोड़ डाले. ढाबा संचालक साधना देवी ने बताया कि तोड़फोड़ के दौरान हमलावर बोल रहे थे कि “यह मुसलमानों का ढाबा है जिसे हिंदू नाम से चलाया जा रहा है.” नशे में धुत कावड़ियों ने ढाबे में बर्तन धोने वाले 40 वर्षीय पिंटू का हॉकी से पीट-पीट कर पैर तोड़ दिया. 

पागलपन का आलम ये है कि मुजफ्फरनगर में ही बाबा स्वामी यशवीर महाराज अपने समर्थकों के साथ दुकानों के क्यूआर कोड चेक कर रहे हैं. ऐसा करके वह दुकान मालिकों के धर्म का पता लगा रहे हैं. यशवीर महाराज ने मुजफ्फरनगर से लेकर गाजियाबाद तक कांवड़ पथ पर हिंदू दुकानदारों को भगवान वराह का एक चित्र और झंडा वितरित किया है. उन्होंने कहा है कि दुकानदार इसे अपनी दुकान पर लगाएं ताकि हिंदू दुकानों की पहचान स्पष्ट हो सके. 50 वर्षिय स्वामी यशवीर महाराज पहली बार में 2015 में चर्चा में आए जब उन्होंने पैगंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी की और उत्तर प्रदेश सरकार ने उन पर रासुका लगा दिया था. गत वर्ष भी कांवड़ यात्रा के दौरान उन्होंने ढाबों पर नेम प्लेट लगाने को लेकर काफी विवाद किया था.कांवड़ यात्रा के मद्देनज़र मेरठ में भी मुसलमानों द्वारा संचालित नॉन वेज ढाबे पूरी तरह से बंद करा दिए गए हैं. 

 उत्तर  प्रदेश के मिर्जापुर रेलवे स्टेशन पर कुछ कांवड़िओं ने एक वर्दीधारी सीआरपीएफ जवान की बेरहमी से पिटाई कर दी.जिस जवान को पीटा गया, वह मिर्जापुर से मणिपुर जाने के लिए ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुंचा था. उसी समय कांवड़ियों के एक समूह से किसी बात पर बहस हो गई, जो देखते ही देखते मारपीट में बदल गई. घटना के दौरान स्टेशन पर मौजूद लोगों ने इस पूरी घटना का वीडियो बना लिया, लेकिन अफसोस की बात यह रही कि किसी ने जवान को बचाने या बीच-बचाव की कोशिश नहीं की.

दूसरी तरफ कांवड़ यात्रा में तोड़फोड़ और उपद्रव करने वालों के योगी सरकार पोस्टर चस्पा करने जा रही है. कांवड़ यात्रा सम्पन्न के बाद उनके खिलाफ सख्त एक्शन होगा. ये बातें खुद सीएम योगी ने कांवड़ियों पर पुष्पवर्षा के बाद हुई प्रेस ब्रीफिंग में कही. सीएम योगी इन घटनाओं को लेकर बेहद तल्ख तेवरों में नजर आए और बोले कि सबके सीसीटीवी हैं, जिन्होंने कांवड़ यात्रा को बदनाम करने का प्रयास किया है. जो भी उपद्रवियों के भेष में छिपे हैं बेनकाब होंगे.

सवाल ये है कि उत्तर प्रदेश सरकार कांवडियों पर इतनी मेहरबान क्यों है? क्या सरकार को ये अहसास नहीं है कि कांवड यात्रा के दौरान हो रहे उत्पात की वारदातों से न केवल यूपी की बल्कि पूरे देश की छवि खराब हो रही है? दुर्भाग्य ये है कि यपी के मुख्यमंत्री इन वारदातों को रोकने के बजाय न सिर्फ पर्दा डाल रहे हैं बल्कि उपद्रवियों को निर्दोष होने का तमगा भी बांट रहे हैं. योगी भूल गये हैं कि वे किसी हिंदू राष्ट्र के अधिपति नहीं हैं, वे एक ऐसे राज्य के मुख्यमंत्री हैं जो बहुभाषी, बहु धर्मी राज्य है. मेरी गर्भनाल उत्तर प्रदेश में है, मैं अपने उत्तर प्रदेश को मोदी के पैदा होने के बारह साल पहले से देख रहा हूँ. आज का उत्तर प्रदेश पहले वाला उत्तर प्रदेश नहीं है. भाजपा ने, योगी ने इसे अनुत्तरदायी प्रदेश बना दिया है. कांवड यात्रा के शुभचिंतक एक बार खुद कांवड लेकर चलें तो उन्हे हकीकत का पता चले.

@  राकेश अचल

रविवार, 20 जुलाई 2025

आखिर बंगाल में नानी नहीं तो माँ की याद आ ही गई

 

हमारे देश में कुछ चीजें और रिश्ते ऐसे हैं जो आदमी को गाहे-बगाहे कहीं भी, किसी भी समय और किसी भी उम्र में या तो खुद-ब -खुद  याद आ जाते हैं या फिर उन्हे याद दिला दिया जाता है. भाऋत में चक्रवर्ती सम्राट बनने का ख्वाब देखने वाले माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास  मोदी जी को भी बंगाल की सियासत ने नानी की नहीं तो माँ की याद जरूर दिला दी.

हमारे यहाँ लोकमान्यता है कि जब कोई मर्द संकट मेंहोता है तो उसे या तो नानी याद आती है या फिर माँ. महिलाएं भी ओ माँ ही कहती हैं. पिता या नाना को याद करते बहुत कम लोग देखे गये हैं. हम भूल भी जाएं दो हमारे शुभचिंतक ऐसी चुनौतियां पेश करते हैं कि आदमी को अपनी छठी का दूध याद आ जाता है. ये दूध भी माँ की ही होता है और नवजीवन देने वाला माना जाता है. जब कोई किसी को छठी का दूध याद दिलाता है तो माना जाता है कि उसका जीवन खतरे में है और उसे माँ के दूध की जरूरत है.

माननीय मोदीजी पिछले एक दशक से कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को या तो छठी का दूध याद करा रहे हैं या फिर नानी की याद करा रहे हैं लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि मोदी जी बंगाल में भगवान राम को भूलकर मां भवानी की जय बोलने पर मजबूर हो गए और यहीं तृण मूल कांग्रेस की वाचाल, हाजिर जबाब सांसद महुआ मोइत्रा ने मोदी जी को घेर लिया. तृणमूल कांग्रेस पार्टी (टीएमसी) की सांसद महुआ मोइत्रा ने  पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में एक रैली को संबोधित करते हुए देवी काली का आह्वान करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा प्रहार किया, उन्होंने बंगाली मतदाताओं को लुभाने के उनके प्रयास को "थोड़ा देर से" कहा, और कहा कि देवी "ढोकला नहीं खाती हैं।"

 आपको बता दें कि गत शुक्रवार को  माननीय प्रधानमंत्री मोदी ने दुर्गापुर रैली में अपने भाषण की शुरुआत बंगाली भाषा में भीड़ का अभिवादन करते हुए की और कहा, “जय मां काली, जय मां दुर्गा।”इसी पर प्रतिक्रिया देते हुए महुआ मोइत्रा ने एक्स पर पोस्ट किया, "बंगाली वोटों के लिए मां काली का आह्वान करने में प्रधानमंत्री मोदी ने थोड़ी देर कर दी। वह ढोकला नहीं खातीं और कभी नहीं खाएंगी।"

सब जानते हैं कि भाजपा, आर एस एस और मोदी जी एक दशक से बंगाल जीतने के लिए एढी-चोटी का जोर लगा रहे हैं लेकिन अब तक कोई कामयाबी नहीं मिली है. भाजपा नेताओं और संघ कार्यकर्ताओं की एढियां घिस गईं पर नतीजा शून्य ही रहा. ताजा बंगाल रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) पर तीखा हमला किया था और राज्य सरकार पर राज्य में अराजकता का माहौल पैदा करने का आरोप लगाया था। मोदी ने बंगाल में निवेशकों के कम विश्वास के लिए “दंगों”, “गुंडा टैक्स” और “पुलिस पूर्वाग्रह” का हवाला दिया।

प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी दावा किया कि क्रूर आरजी कर बलात्कार और हत्या मामले में “टीएमसी ने दोषियों को बचाने की कोशिश की”, जिसने पूरे बंगाल को झकझोर कर रख दिया था। प्रधानमंत्री ने यह भी दावा किया, “जहां भी भाजपा की सरकार है, वहां बंगालियों का सम्मान किया जाता है।”

 अब महुआ के तंज का आशय समझ लीजिये. आप जानते हैं कि बंगाल के अधिकांश काली मंदिरों में पारंपरिक रूप से देवी के 'भोग' या 'प्रसाद' के रूप में मांस और अन्य मांसाहारी चीजें चढ़ाई जाती हैं।लेकिन महुआ ने प्रधानमंत्री जी के गृहराज्य गुजरात के  नाश्ता को ही एक राजनीतिक रूपक बना दिया. प्रधानमंत्री जी ने शायद इसकी कल्पना भी नहीं की होगी.

टीएमसी पार्टी के सदस्य ने इस साल की शुरुआत में 'ढोकला' का तंज कसा था, जब एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें कुछ लोग दिल्ली के चित्तरंजन पार्क स्थित एक मछली बाज़ार के दुकानदारों को इसलिए धमका रहे थे क्योंकि वह काली मंदिर के बगल में स्थित है। वीडियो शेयर करते हुए मोइत्रा ने दावा किया कि वे लोग भाजपा से जुड़े थे।महुआ का विवादों से पुराना नाता है. सन 2022 में, महुआ मोइत्रा ने उस समय राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया था जब उन्होंने देवी काली को “मांस खाने वाली और शराब स्वीकार करने वाली” देवी बताया था – एक ऐसी टिप्पणी जिससे देशव्यापी आक्रोश फैल गया और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई।कृष्णानगर की सांसद की टिप्पणी की भाजपा नेताओं ने तीखी आलोचना की और उन पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया।बहरहाल अब महुआ फिर सुर्खियों में हैं मोदी जी के साथ,साथ.

@  राकेश अचल

शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

पाठ्य पुस्तकों के जरिए ' हिस्ट्री ' बदलने का ' हिस्टीरिया 'I

 आजकल देश के भाग्य विधाताओं को हिस्टीरिया के दौरे फिर पडने लगे हैं. सरकार पाठ्य पुस्तकों के जरिए देश की हिस्ट्री बदलने की कोशिश कर रही है. इस कोशिश का समर्थन से ज्यादा  विरोध हो रहा है, किंतु हमेशा की तरह सरकार बेफिक्र है. ताजा सूचनाओं के मुताबिक राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद अर्थात  एनसीईआरटी की आठवीं क्लास की सोशल साइंस की नई किताब में बाबर को बर्बर, हिंसक विजेता और पूरी आबादी का सफ़ाया करने वाला बताया गया है.वहीं अकबर के शासन को क्रूरता और सहिष्णुता का मिला-जुला रूप बताया है. इसके अलावा औरंगज़ेब को मंदिर और गुरुद्वारा तोड़ने वाला बताया गया है.

इतिहास को मनमाफिक और अपने सियासी एजेंडे के अनुरूप ढालने को जायज बताते हुए एनसीईआरटी का कहना है कि इतिहास के कुछ अंधकारमय अवधि को समझाना ज़रूरी है. इसके साथ ही किताब के एक अध्याय में कहा गया है कि अतीत की घटनाओं के लिए अब किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.

सरकार एक तीर से दो निशाने साध रही है. एक तरफ सरकार इतिहास का पुनर्लेखन करने के साथ अपनी मुस्लिम विरोधी छवि को भी चमकने की कोशिश कर रही है.आठवीं क्लास की सोशल साइंस की किताब का पार्ट-1 'एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडियन एंड बियॉन्ड' इसी हफ़्ते जारी हुई थी. एनसीईआरटी की नई किताबों में से यह पहली किताब है जो विद्यार्थियों को दिल्ली सल्तनत और मुग़लों से परिचित कराती है.

एनसीईआरटी की नई किताब में 13वीं से 17वीं सदी तक के भारतीय इतिहास को शामिल किया गया है. इस किताब में  मुगलिया सल्तनत के चार सदी के कार्यकाल को लूट-पाट और मंदिरों को तोड़ने के रूप में दिखाया गया है. इसके पहले की किताब में सल्तनत काल को इस रूप में पेश नहीं किया गया है. द हिन्दू के अनुसार, एनसीईआरटी की नई किताब में लिखा गया है कि चित्तौड़ के क़िले पर क़ब्ज़े के दौरान अकबर की उम्र 25 साल थी और उन्होंने 30 हज़ार नागरिकों के जनसंहार के साथ बच्चों और महिलाओं को ग़ुलाम बनाने का फ़रमान जारी किया था.

इस किताब में अकबर के हवाले से कहा गया है, ''हमने काफ़िरों के कई क़िलों और कस्बों पर क़ब्ज़ा कर लिया है और वहाँ इस्लाम की स्थापना की है. ख़ून की प्यासी तलवारों की मदद से हमने उनके मन से काफ़िरों के निशान मिटा दिए हैं. हमने वहाँ के मंदिरों को भी नष्ट कर दिया है.''

किताब में लिखा है कि अकबर अपने बाद के शासन में शांति और सद्भावना की बात करने लगते हैं.

जिन लोगों ने ये किताबें देखीं हैं उनके मुताबिक किताब में यह भी लिखा है कि औरंगज़ेब ने स्कूलों और मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया था. किताब के मुताबिक़ बनारस, मथुरा और सोमनाथ सहित जैनों के मंदिर और सिखों के गुरुद्वारे भी नष्ट किए गए. इसमें पारसियों और सूफ़ियों पर भी मुग़लों के कथित अत्याचार का भी ज़िक्र है.

 दुर्भाग्य से भारत का दक्षिणपंथी खेमा ग़ुलामी की अवधि केवल अंग्रेज़ों के 200 साल के शासन को ही नहीं मानता है बल्कि पूरे मध्यकाल को भी ग़ुलाम भारत के रूप में देखता है.आपको बता दूं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार 11 जून, 2014 को लोकसभा में अपने पहले ही भाषण में मोदी ने कहा था, ''12 सौ सालों की ग़ुलामी की मानसिकता परेशान कर रही है. बहुत बार हमसे थोड़ा ऊँचा व्यक्ति मिले, तो सर ऊँचा करके बात करने की हमारी ताक़त नहीं होती है.''

प्रधानमंत्री मोदी की इस बात ने कई सवाल एक साथ खड़े किए. क्या भारत 1200 सालों तक ग़ुलाम था? क्या भारत ब्रिटिश शासन के पहले भी ग़ुलाम था?

पीएम मोदी ने जब 1200 साल की ग़ुलामी की बात कही थी, तो उन्होंने आठवीं सदी में सिंध के हिंदू राजा पर हुए मीर क़ासिम के हमले (सन 712) से लेकर 1947 तक के भारत को गुलाम बताया.भारत में अंग्रेज़ों का शासनकाल मोटे तौर पर 1757 से 1947 तक माना जाता है, जो 190 साल है. इस हिसाब से ग़ुलामी के बाक़ी तकरीबन एक हज़ार साल भारत ने मुस्लिम शासकों के अधीन गुज़ारे थे.

मध्यकाल के मुस्लिम शासकों को दक्षिणपंथी खेमा आक्रांता कहता है. आप जानते हैं कि सत्ता के लिए एक दूसरे राज्य पर हमला करना कोई नई बात नहीं थी.हमने जो इतिहास पढा उसके मुताबिक ''मौर्यों का शासन अफ़ग़ानिस्तान तक था, इस तरह तो वे भी आक्रांता हुए. सत्ता विस्तार और सत्ता पाने की चाहत को हम चाहे जिस रूप में देखें. इस चाहत का किसी ख़ास मज़हब से कोई रिश्ता नहीं है.''

इतिहास बताता है कि बाबर और हुमायूँ मध्य एशिया से आए थे. अकबर हिन्दुस्तान से बाहर कभी नहीं गए. अकबर के बाद जितने मुग़ल शासक हुए सबका जन्म भारत में ही हुआ था.इसलिए उन्हे कम या ज्यादा करके नहीं बताया जा सकता, लेकिन भगवा सनातनी सरकार इतिहास से छेडछाड करने से बाज नहीं आ रही.

बहुत पुरानी बात नहीं है जब हमारे यहाँ महाराष्ट्र में स्थित औरंगजेब की कब्र से लेकर अजमेर शरीफ की मजारों तक को उखाड फेंकने का एक अभियान चला था, लेकिन कामयाब नहीं हो पाया. सरकार कब्रें और मजारें तो नहीं हटा सकी किंतु सरकार ने पाठ्य पुस्तकों में मुगलों की तस्वीरें अपने मन माफिक जरूर गढ लीं. गनीमत ये भी है कि सरकार ने मुगल सम्राटों के वजूद को नहीं ठुकराया, अन्यथा सरकार कह सकती थी कि बाबर, अकबर और औरंगजेब जैसे शासकों का कोई वजूद था ही नहीं.

दर असल हिस्ट्री के हिस्टीरिया का इलाज आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं में भी कोई पुख्ता इलाज नहीं है. हकीम लुकमान और चरक भी इस बीमारी का कोई इलाज नहीं कर पाए. इस लाइलाज बीमारी से मुक्ति का एक ही रास्ता है और वो है सत्ता  परिवर्तन. सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ खडा होना भी एक तरह का हिस्टीरिया  ही है.

@ राकेश अचल

बुधवार, 16 जुलाई 2025

नेताओं से बेहतर फैसले करते हैं अफसर

 

मप्र में 355 फ्लाईओवर और रेलवे ओव्हर ब्रिज की डिजाइन रद्द करने का फैसला कर लोक निर्माण विभाग के सेतु शाखा के ईएनसी शाखा के ईएनसी ने एक नया कीर्तिमान रच दिया है. भोपाल और इंदौर में 90डिग्री मोड वाले पुलों के विवाद के बाद आए इस फैसले से न जाने कितने इंजीनियरों और ठेकेदारों की नींद उड गई है.

ईएनसी (सेतु)पीसी वर्मा ने ये फैसला निश्चित ही सरकार को लोकनिंदा और जनता को भावी दुर्घटनाओं से बचाने के लिए किया है. ये भी तय है कि वर्मा ने इस फैसले से पहले विभाग के मंत्री के अलावा दीगर निर्णायक मंचों को भी अवगत कराया होगा और सभी जगह उन्हे समर्थन भी मिला होगा.

आपको बता दूं कि इस फैसले के बाद मध्यप्रदेश के 1200 करोड़ रुपए लागत के करीब 140 निर्माणाधीन फ्लाईओवर, आरओबी और एलिवेटेड कॉरिडोर समेत कुल 355 प्रोजेक्ट फिलहाल पूरी तरह रुक गए हैं। इनमें 250 बड़े पुल, करीब 100 रेलवे ओवरब्रिज और शहरों के बीच 5 एलिवेटेड कॉरिडोर शामिल हैं। जो प्रोजेक्ट पहले से निर्माणाधीन हैं, उनका काम भी अब जीएडी के रिव्यू और अनुमति तक स्थगित रहेगा। विभाग ने साफ किया है कि अब बिना उच्च स्तरीय तकनीकी जांच के कोई काम शुरू नहीं होगा।

यह फैसला लेना आसान नहीं था लेकिन विवाद बढने के बाद सरकार को भोपाल के ऐशबाग और इंदौर के एक आरओबी में डिज़ाइन की गंभीर खामियों के चलते काम रोकना पड़ा इन दोनों पुलों की गडबड डिजाइन ने विभाग की भी खूब किरकिरी कराई.। इसके बाद विभाग ने राज्यभर के सभी प्रोजेक्ट की जीएडी की रेंडम जांच कराई, जिसमें तकनीकी त्रुटियां सामने आईं। अब लोक निर्माण विभाग ने जीएडी की दोबारा जांच के लिए एक हाईलेवल कमेटी बनाई है, जिसमें ईएनसी चेयरमैन होंगे।

उनके साथ चीफ इंजीनियर ब्रिज पीडब्ल्यूडी, सीई आरडीसी भोपाल, रेलवे ज़ोन के ब्रिज इंजीनियर और संबंधित नगरीय निकाय के अधिकारी सदस्य होंगे। यह कमेटी अब हर प्रोजेक्ट की डिजाइन, अलाइनमेंट, जियोमैट्रिक स्ट्रक्चर और स्पीड कैलकुलेशन की जांच करेगी।

निर्माण  विशेषज्ञों का मानना है कि जिन प्रोजेक्ट्स की जीएडी में खामी निकलेगी, उनका काम कम से कम 15 दिन से 6 माह तक रुक सकता है। इससे न सिर्फ देरी बढ़ेगी, बल्कि ठेकेदार विभाग पर क्लेम भी ठोक सकते हैं। परियोजनाओं की लागत बढ़ेगी और सरकार पर वित्तीय भार आएगा।लेकिन ये मंहगा सौदा नही है.

ईएनसी पीडब्ल्यूडी रोड और ब्रिज तथा एमडी आरडीसी को निर्देश दिए गए हैं कि इंडियन रोड कांग्रेस के मानकों के अनुसार काम हो रहा है या नहीं, इसकी जांच की जाए। साथ ही रेलवे और स्थानीय निकायों से समन्वय कर यातायात भार, तकनीकी खामियों और भविष्य की जरूरतों के आधार पर नई जीएडी मंजूरी दी जाए।

आपको याद होगा कि भोपाल के ऐशबाग में 90 डिग्री मोड पर आरओबी बनाने का खुलासा होने के बाद मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने इसके उद्घाटन से इनकार कर दिया। इसके बाद 8 इंजीनियरों पर कार्रवाई की गई। इसके बाद प्रदेशभर में कई ऐसे आरओबी का खुलासा हुआ, जिनके िडजाइन में गड़बड़ी है।लोनिवि के इस फैसले से हालांकि ठेकेदारों का कुछ ज्यादा बिगडने वाला नहीं है, वे इस  फैसले की वजह से होने वाले नुकसान और लागत वृद्धि को लेकर दावे कर सकते हैं, किंतु इस फैसले से सरकार की न सिर्फ साख बढेगी बल्कि लोनिवि समेत दूसरे निर्माण विभागों में हो रही इसी तरह की लापरवाही पर भी लगाम लगेगी. 

जाहिर है कि ईएनसी वर्मा के लिए इतना कठोर फैसला करना आसान नहीं रहा होगा. मुमकिन है कि इस फैसले के बाद वे अपने ही साथ के अभियंताओं और ठेकेदारों के निशाने पर आ जाएं लेकिन उनके इस फैसले की सराहना विरोधियों को भी मन मारकर करना ही पडेगी. ये फैसला जनहित से जुडा एक यादगार फैसला है और निश्चित ही आने वाले दिनों में इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे.तकनीकी पदों पर बैठे शीर्ष अधिकारी यदि वर्मा की तरह निर्मम ईमानदारी दिखाने लगें तो सरकार तथा लोनिवि बदनामी से बच सकती है.

मप्र में ये अनूठा फैसला तब आया है जब मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव विदेश यात्रा पर हैं. तय है कि इस फैसले पर मुख्यमंत्री ने अपनी मोहर अवश्य लगाई होगी अन्यथा इतना बडा फैसला आसानी से नहीं लिया जाता.अब इस फैसले पर पूरे प्रदेश की नजर रहने वाली है.ये फैसला 90डिग्री की गलतियों को सुधारने के लिए लिया गया 360 डिग्री वाला फैसला साबित होगा.

@ राकेश अचल

कांवड यात्रा से धार्मिक तत्व गायब


 

सोमवार, 14 जुलाई 2025

न भाजपाई सुधरेंगे और न मनसे वाले


भारत में राजनीति मुद्दों पर हो ही नहीं सकती क्योंकि हर दल जाति, मजहब औऔर भाषा की बिना पर सियासत करने की आदत छोडने के लिए राजी नहीं है. आप इस प्रवृत्ति की तुलना अपनी पसंद के प्रतीक से कर सकते हैं मुद्दों पर राजनीति करने से कहीं ज्यादा आसान बेसिर- पैर के मुद्दों पर राजनीति करना है.

पश्चिम बंगाल के भाजपा के वरिष्ठ नेता और विधायक शुभेंदु अधिकारी हों या मनसे के राज ठाकरे, दोनों में कोई अंतर नहीं है.

पिछले दिनों शुभेंदु अधिकारी ने कहा कि हमारे प्रदेश से कोई भी बंगाली मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर में घूमने नहीं जाएगा। उन्होंने कहा कि जम्मू कश्मीर में हिंदू पर्यटक सुरक्षित नहीं है। जब पश्चिम बंगाल में ही हिंदू सुरक्षित नहीं है तो मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर में सुरक्षित कैसे हो सकते हैं? शुभेंदु अधिकारी ने ऐसा बयान तब दिया है, जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार भी देशवासियों से कश्मीर आने की अपील कर रही है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोगों से कश्मीर में पर्यटन करने की अपील की है। 

आपको याद होगा कि गत 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में जो 28 हिंदुओं की हत्या आतंकवादियों ने की, उसके बाद पर्यटकों का कश्मीर जाना बंद हो गया था। लेकिन अब धीरे धीरे पूरे जम्मू कश्मीर के हालात सुधर रहे हैं। पर्यटकों की संख्या भी बढ़ी है।  शुभेंदु अधिकारी ने जो बयान दिया, वह केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों के विरुद्ध  भले हो लेकिन भाजपा हाई कमान ने इस बयान पर मौन साथ कर परोक्ष रुप से उनका समर्थन किया.

बंगाल की ही तरह महाराष्ट्र में मुंबई के स्थानीय निकाय चुनावों से पहले मराठी बोलने को लेकर विवाद बड़ा सियासी मुद्दा बनता जा रहा है। हिंदीभाषी लोगों के खिलाफ हिंसा के बीच महाराष्ट्र के मंत्री आशीष शेलार ने पहलगाम आतंकी हमले और मुंबई में ‘हिंदुओं’ की पिटाई को एकसमान बताया है। शेलार ने उद्धव-राज ठाकरे का नाम न लेते हुए रविवार को कहा कि राज्य देख रहा है कि कैसे कुछ नेता ‘अन्य हिंदुओं की पिटाई का आनंद ले रहे हैं।’ उनकी यह टिप्पणी उस घटना के बाद आई है, जिसमें मनसे कार्यकर्ताओं ने मुंबई में मिठाई की दुकान के मालिक की मराठी न बोलने पर पिटाई कर दी थी।

मनसे कार्यकर्ताओं ने शेयर बाजार निवेशक सुशील केडिया के वर्ली स्थित दफ्तर के कांच के दरवाजे तोड़ दिए थे। केडिया ने राज ठाकरे को चुनौती देते हुए कहा था कि वे मराठी नहीं बोलेंगे। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने मनसे प्रमुख राज ठाकरे की हालिया टिप्पणियों की आलोचना की है और उन्हें ‘दादागिरी’ को बढ़ावा देने वाला बताया और मनसे कार्यकर्ताओं पर सख्त कार्रवाई की मांग की

केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने कहा कि लोगों को मराठी बोलने के लिए मजबूर करना गलत है। हिंसा में शामिल मनसे कार्यकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। अठावले ने राज के रुख पर पूछा कि ऐसी घटनाओं के कारण उद्योग बंद हो जाते हैं तो क्या वे सभी को रोजगार देंगे।

आपको बता दें कि गत 5 जुलाई को मशहूर इन्वेस्टर सुशील केडिया के वर्ली स्थित ऑफिस में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना कार्यकर्ताओं ने तोड़फोड़ की थी।

और मनसे सुप्रीमो राज ठाकरे के समर्थन में नारे लगाए थे। पुलिस ने इस मामले में 5 लोगों को हिरासत में लिया है। ये हमला उद्धव और राज ठाकरे की संयुक्त रैली के कुछ घंटे पहले किया गया। ये हमला केडिया के 3 जुलाई की उनकी X पोस्ट के बाद हुआ। उन्होंने मनसे चीफ राज ठाकरे को टैग करते हुए लिखा था-कि -'मुंबई में 30 साल रहने के बाद भी मैं मराठी ठीक से नहीं जानता और आपके घोर दुर्व्यवहार के कारण मैंने यह संकल्प लिया है कि जब तक आप जैसे लोगों को मराठी मानुष की देखभाल करने का दिखावा करने की परमिशन नहीं दी जाती, मैं प्रतिज्ञा लेता हूं कि मैं मराठी नहीं सीखूंगा। 

महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर जारी विवाद के बीच उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने कहा कि तीन भाषा का फॉर्मूला केंद्र से आया। हिंदी से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इसे थोपा नहीं जाना चाहिए। अगर मराठी के लिए लड़ना गुंडागर्दी है तो हम गुंडे हैं.

मुझे लगत है कि मजहब, जाति और भाषा विवाद जारी रखकर ये तमाम नेता अपने क्षेत्रों का विकास अवरुद्ध कर रहे है. भाषा को लेकर तमिलनाडु में दशकों से राजनीति हो रही है, लेकिन केरल सरकार ने हिंदी को लेकर जो सकारात्मक रुख अपनाया है, वो काबिले तारीफ है. अब जनता खुद फैसला करे कि उसे कैसे मुद्दे और कैसे नेता चाहिए.

@  राकेश अचल

शनिवार, 12 जुलाई 2025

आजकल डॉ मोहन यादव पर लट्टू हैं ज्योतिरादित्य

 

चौंकिए मत! आज का शीर्षक सौ फीसदी सही है. केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया आजकल मप्र के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव पर लट्टू हैं. वे इससे पहले के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, स्वर्गीय बाबूलाल गौर या कमलनाथ पर इतने फिदा नहीं थे जितने कि डॉ यादव पर हैं.

मप्रके मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव पर सिंधिया के फिदा होने की एक वजह हो तो गिना भी दें लेकिन डेढ साल में मुख्यमंत्री यादव ने सिंधिया के अहं को जिस ढंग से संतुष्ट किया है वो काबिले गौर है. मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के सामने सबसे बडी चुनौती दर असल सिंधिया नहीं बल्कि केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं. चौहान का दबाब कम करनेके लिए ही मोहन यादव का झुकाव सिंधिया की ओर हो गया है.

पिछले डेढ साल में सिंधिया ने मुख्यमंत्री मोहन यादव को जब भी याद किया वे गुना से लेकर ग्वालियर के बीच हाजरी देते नजर आए. मुख्यमंत्री यादव ने सिंधिया को भी खुश रखा और विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिह तोमर को भी. मुख्यमंत्री डॉ यादव नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेन्द्र तोमर द्वारा आयोजित भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में भी शामिल हुए. डॉ यादव दर असल हिकमत अमली के उस्ताद साबित हो रहे हैं. उन्हे पता है कि सिंधिया पासंग वाले नेता हैं. वे जब शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ मैदान में उतरे तो चौहान को सत्ता से हाथ धोना पडे थे, कमलनाथ के खिलाफ उतरे तो उनकी कुरसी चली गई थी और जब सिंधिया कमलनाथ तथा शिवराज सिंह चौहान पर मेहरबान हुए तो उन्हे रातोंरात सत्ता में वापिस भी ले आए थे.

सूत्र बताते हैं कि सिंधिया ने भी सूबे में अपना वजूद बनाये रखने के लिये सिंधिया को खुश रखने में कोई कंजूसी नहीं की. मुख्यमंत्री यादव ने सिंधिया की कमजोर नस पकड ली है. सिंधिया को अपनी जै - जै पसंद है और मुख्यमंत्री यादव को जै- जै करने में कोई संकोच नहीं है. वे समझ गये हैं कि सिंधिया की जै- जै करना सस्ता सौदा है. सिंधिया के इशारे मुख्यमंत्री समझने लगे हैं. किस अफसर को सिंधिया पसंद करते हैं और किससे खफा हैं ये मुख्यमंत्री को पता रहता है. ग्वालियर और गुना में इनदिनों सिंधिया 'मिनी मुख्यमंत्री ' की भूमिका में नजर आने लगे हैं

पिछले दिनों ग्वालियर में समरसता सम्मेलन में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव की शान में कसीदे पढे. विधानसभा सभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर की मौजूदगी में कसीदे पढे. सिंधिया ने सम्मेलन में आमंत्रित भीड को भोजन परोसने में भी मुख्यमंत्री का हाथ बंटाया. बेचारे तोमर साहब देखते रहे.दरअसल ग्वालियर भाजपा में सिंधिया समर्थकों की संख्या पहले कम थी, लेकिन अब सिंधिया ने संगठन में भी अपनी जगह बना ली है.

आपको बता दें कि सिंधिया को साधकर मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादल सूबे में लोकप्रियता के मामले में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौऔहान से बडी लकीर खींचने लगे हैं. डॉ यादव अपने आपको आम आदमी के रूप में स्थापित करना चाहते है. इसके लिए वे काम भी कर रहे है.मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के निवासी उस वक्त हैरान रह गए, जब गुरुवार की रात प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव अचानक उनके बीच पहुंच गए. मुख्यमंत्री ने बाजार में न केवल आम जनता से मुलाकात की और उनका हालचाल जाना, बल्कि एक ठेले वाले से फल भी खरीदे. उन्होंने फल विक्रेता को डिजिटल पेमेंट भी किया.

उल्लेखनीय है कि केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने अपने समर्थकों को भाजपा संगठन और निगम, मंडलों में जगह दिलाने की चुनौती है

डॉ यादव से पहले शिवराज सिंह चौहान ने लंबे अरसे तक निगम, मंडलों में नियुक्तियां न कर सिंधिया की खूब किरकिरी कराई. डॉ यादव को पता है कि सिंधिया की पार्टी हाईकमान और आर एस एस में भी गहरी पैठ है जो प्रदेश में सत्ता संतुलन बनाए रखने के बहुत काम आ सकती है. इसलिए वे सिंधिया की हर छोटी- बडी ख्वाहिश पूरी करने में कोई कंजूसी नसी कर रहे है.सिंधिया के आभामंडल का लाभ जितना डॉ मोहन यादव ने हंसते, मुस्कराते ले लिया है इसका अनुमान खुद सिंधिया को भी नहीं है.

मजे की बात ये है कि इस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री यादव के प्रति जितने विनम्र हैं शिवराज सिंह चौहन उतने ही उग्र. चौहान तो पिछले दिनों अपने क्षेत्र के आदिवासियों को लेकर मुख्यमंत्री आवास पर भी जा धमके थे. चौहान ने खाद, बीज के मुद्दे पर परोक्ष रूप से यादव सरकार की किरकिरी कराई. अब देखना ये है कि सिंधिया और डॉ मोहन यादव की ये नयी कैमिस्ट्री कितने दिन चलती है.अतीत में ज्योतिरादित्य के पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय मोतीलाल वोरा के बीच भी इसी तरह की कैमिस्ट्री हुआ करती थी. 

@ राकेश अचल

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

क्या आपके पास है नागरिकता प्रमाणपत्र?

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूचियों के विवादास्पद सघन अभियान के बाद से मै परेशान हूँ और सोच रहा हूँ कि मै अगली बार विधानसभा या लोकसभा चुनाव में मतदान कर भी पाऊंगा या नहीं, क्योंकि मेरे पास तो नागरिकता प्रमाणपत्र जैसा कोई दस्तावेज है ही नहीं.

भारत ने आजादी के बाद से अब तक प्रत्येक नागरिक को आधार कार्ड देने की मुहिम तो चलाई लेकिन नागरिकता प्रमाण पत्र के बारे में कभी नही सोचा. भारत में सत्ता में बने रहने के लिए दर अअसल इससे पहले कभी कोई राजनीतिक दल चुनाव में गैर भारतीयों के भाग लेने को लेकर फिक्रमंद हुआ भी नहीं. भाजपा ने भी दो चुनाव बिना किसी डर के जीते लेकिन जब तीसरे आम चुनाव में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 400 पार का नारा जनता ने नकार दिया तो भाजपा को फिक्र हुई और भाजपा सरकार के कहने पर पहली बार केंद्रीय चुनाव आयोग यानि केंचुआ ने बिहार से मतदादाओं की नागरिकता जांचने की मुहिम शुरु की, जो कि अब सुप्रीम कोर्ट में जेरे बहस है.

मै इस मुहिम के साथ खडा होता यदि ये मुहिम भारत सरकार का गृह मंत्रालय उसी तर्ज पर चलाता जैसे कांग्रेस सरकार ने आधार पहचान पत्र के लिए देशव्यापी मुहिम चलाई थी. मेरी जानकारी में दुनिया के तमाम देशों में जन्मजात और अनुवांशिक नागरिकता प्रचलित है इसलिए सभी के पास अलग से कोई नागरिकता प्रमाण पत्र नही होता. नागरिकता प्रमाणपत्र उन्ही परदेशियों के लिए जारी किया जाता है जो इसके लिए बाकायदा आवेदन करते हैं. भारत में आमतौर से कोई भी शासकीय सुविधा या अधिकार पाने के लिए आयकर प्रमाण पत्र से ज्यादा महत्व आधार पहचान पत्र को दी जा रही है.. मेरे पास वंशानुगत या जन्म आधारित नागरिकता है लेकिन इसका कोई प्रमाण पत्र नहीं है. आपके पास भी शायद नहीं होगा.

दुर्भाग्य देखिए कि जिस पारपत्र( पासपोर्ट) के आधार पर पूरी दुनिया हमें भारतीय मानकर अपने यहां आने- जाने देती है, कारोबार करने देती है उसी पासपोर्ट को हमारे अपने देश में नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं माना जाता.मान लीजिये कि यदि विदेशी सरकारें भी भारत सरकार की तरह पासपोर्ट के आधार पर हमें भारतीय मानने से इंकार कर दें तो हम कहीं के नहीं रहेंगे. क्योंकि पासपोर्ट जारी ही तब किया जाता है जब जन्म का, आवास का, संपत्ति का और पुलिस द्वारा चरित्र का सघन सत्यापन करा लिया जाता है.कमोवेश यही प्रक्रिया मतदाता पहचान पत्र जारी करने मे अपनाई जाती है. ऐसे में यदि बिहार या देश के किसी भी राज्य में जारी मतदाता पहचान पत्रों को संदिग्ध माना जा रहा है तो दोषी केंद्रीय चुनाव आयोग है. उसका बीएल ओ से लेकर जिला स्तर का अधिकारी दोषी है. उसके खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज होना चाहिए.

मान लीजिये कि बिहार में करोड, दो करोड मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से उन्हे गैर भारतीय मानकर काट भी दिए जाएं तो क्या भारत सरकार इन कथित गैर भारतीयों को कहाँ भेजेगी?

दर असल केंचुआ के सघन पुनरीक्षण अभियान के पीछे कोई राष्ट्र भक्ति नहीं है. केंचुआ भूमिनाग से शेषनाग बनने की असफल, नाजायज़ कोशिश कर रहा है. दुर्भाग्य से केंचुआ के सामने हमारी न्यायपालिका भी असहाय नजर आ रही है क्योंकि केंचुआ के ऊपर सरकार का वरदहस्त है. और सरकार से टकराना अब आसान काम नहीं. सामान्य सांसद से लेकर उप राष्ट्रपति ही नहीं राष तक सुप्रीम कोर्ट की बखिया उधेडने में लग जाते हैं. यानि संवैधानिक संस्थाओं की तो छोडिए न्यायपालिका का अपमान करने में इन्हे संकोच नहीं होता, शर्म नहीं आती. देश में आपातकाल में भी कुछ -कुछ ऐसा ही हुआ था और जिसका खामियाजा देश ने भुगता था.

आपको बता दूं कि  भारत में नागरिकता प्रमाण पत्र की सटीक संख्या के बारे में कोई आधिकारिक, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ा नहीं है जो यह बता सके कि कितने लोगों के पास यह प्रमाण पत्र है। भारत सरकार, विशेष रूप से गृह मंत्रालय नागरिकता प्रमाण पत्र जारी करता है, लेकिन इसकी कुल संख्या को लेकर व्यापक डेटा सार्वजनिक डोमेन में आसानी से उपलब्ध नहीं है।

नागरिकता प्रमाण पत्र मुख्य रूप से उन लोगों को जारी किया जाता है जो जन्म, वंश, पंजीकरण, प्राकृतिकरण  या क्षेत्रीय समावेशन के माध्यम से भारतीय नागरिकता प्राप्त करते हैं, नागरिकता अधिनियम, 1955  के मुताबिक, भारत में जन्मे अधिकांश लोग स्वतः नागरिक माने जाते हैं, और उनके लिए नागरिकता का प्रमाण आमतौर पर जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, या अन्य दस्तावेजों जैसे आधार कार्ड, वोटर आईडी आदि के माध्यम से स्थापित किया जाता है।दुर्भाग्य ये है कि इस मुद्दे पर हमारा सर्वोच्च न्यायालय और केंचुआ ही नहीं बल्कि सरकार भी एकमत नहीं हैं.

 भारत में नागरिकता साबित करने के लिए आमतौर पर जन्म प्रमाण पत्र, भारतीय पासपोर्ट, वोटर आईडी, या अन्य सरकारी दस्तावेजों का उपयोग होता है। हाल ही में सरकार ने स्पष्ट किया है कि आधार कार्ड और पैन कार्ड को नागरिकता के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा। केवल जन्म प्रमाण पत्र और भारतीय पासपोर्ट को ही प्राथमिक दस्तावेज माना जाता है।


राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर  बनाकर मौजूदा सरकार ने असम में एन आर सी प्रक्रिया के तहत नागरिकता सत्यापन करने का अभियान चलाया था जिसमें लगभग 1.9 मिलियन लोग नागरिकता साबित करने में असफल रहे थे, लेकिन  इनमें से किसी को देश निकाला नहीं दिया गया. यही सब बिहार में बिना एन आर सी के करने की कोशिश की जा रही है. बिहार से किसी को नहीं  निकाला जाएगा, केवल उनका मताधिकार छीना जाएगा ताकि वे भाजपा को न हरा सकें.

भारत की कुल जनसंख्या लगभग 140 करोड़ है, इनमें से अधिकांश लोग जन्म के आधार पर स्वतः नागरिक हैं।केवल उन लोगों को नागरिकता प्रमाण पत्र की आवश्यकता पड़ती है जो गैर-नागरिक पृष्ठभूमि से आते हैं या जिन्होंने पंजीकरण/प्राकृतिकरण के माध्यम से नागरिकता प्राप्त की है। ये आंकडा सरकार के पास होगा ही, लेकिन कहीं पै निगाहेँ, कहीं पै निशाना लगाना भाजपा की पुरानी आदत है.

@राकेश अचल

कातिल के हाथों में डंडे झंडे हैं


 कातिल के हाथों में डंडे झंडे हैं

और तुम्हारे हाथों में सरकंडे हैं

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गंगा नही नहा पाओगे, शर्त लगी

घाट घाट पर काबिज उनके पंडे हैं

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क्या निर्यात करें हम बोलो दुनिया में

पास हमारे केवल गीले कंडे हैं

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कुरसी पर काबिज है खूनी, व्यापारी 

उनके पास चुनावी सौ हथकंडे हैं

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देंगे  तालीम भला दिल्ली वाले 

उनके हाथों  में ताबीजें गंडे है

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कैसे पार लगेगी नैया, पता नहीं

उनके पास नये ढेरों हथकंडे हैं

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झुग्गी चुभती है उन सबकी आंखों में

जिनके अपने एक नहीं दसखंडे हैं

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@ राकेश अचल

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

आखिर केंचुआ ने मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा?

 

केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व मतदाता सूचियों की जांच के सघन अभियान के नाम पर की जाने वाली कतर-ब्योंत के खिलाफ 9 जुलाई को हुए बिहार बंद की सबसे खास तस्वीर आपके सामने है. बंद कायमाब था या नहीं, अथवा इस बंद से केंचुआ की नींद और दो करोड से ज्यादा मतदाओं का मताधिकार छीने जाने के अभियान पर ब्रेक लगेगा या नहीं, इस पर बाद में बहस करेंगे.

दर असल केंचुआ ने केंद्र सरकार का, भाजपा का, संघ का मनोरथ पूरा करने के लिए मतदाता सूचियों के सघन पुनरीक्षण के नाम पर बिहारियों की नागरिकता की जांच की मुहिम छेडी है, जो किसी बिहारी को बर्दास्त नहीं. इस भैंस वाले को भी जिसे कोई नहीं जानता. केंचुआ शायद नहीं जानता कि आम भारतीय के साथ ही आम बिहारी अपने मताधिकार को अपनी भैंस जितना ही कीमती मानता है. कोई भी यदि किसी बिहारी की भैंस या उसके मताधिकार से छेडछाड करने की कोशिश करेगा तो बिहारी उसे बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देगा.

पूरे देश और दुनिया ने मताधिकार को लेकर बिहार और बिहारियों का जुनून 9  जुलाई को देख लिया.बिहार में गैर भारतीय मतदाता यदि हैं तो लगातार सत्ता में रहे राजनीतिक दलों को इसकी जानकारी जरूर होगी, और यदि है तो फिर भाजपा समेत तमाम दल पिछले साल हुए आम चुनाव के वक्त मौन क्यों रहे? चुनाव आयोग तब कहाँ सो रहा था? अचानक केंचुआ ज्ञानेंश को मतदाता सूचियों  में गैर भारतीयों के शामिल होने का दिव्य ज्ञान कहाँ से मिला? अगर भारत की मतदाता सूचियों में गैर भारतीय शामिल हो गए हैं तो उन्हे बाहर करने के लिए राष्ट्र व्यापी अभियान छेडने के बजाय बिहार को ही लक्ष्य क्यों बनाया गया? 

मै केंचुआ की इस बात से इत्तफाक रखता हूँ कि भारत की मतदाता सूचियों में कोई गैर भारतीय नहीं रहेगा. नहीं रहना चाहिए. लेकिन क्या केंचुआ के पास इस सवाल का कोई जबाब है कि भारत में नागरिकों को दिए गये आधार पहचान पत्र बोगस हैं. यदि केंचुआ ये कहना चाहता है तो ये केवल बिहारियों का नहीं बल्कि भारत सरकार का अपमान है. प्रधानमंत्री का अपमान है. संविधान का अपमान है. और इसै बर्दास्त नहीं किया जा सकता. किसी सूरत में नहीं किया जा सकता. सवाल ये है कि क्या खुद केंचुआ ज्ञानेंश के पास कोई नागरिकता प्रमाणपत्र है? कम से कम मेरे पास तो नहीं है, क्योंकि भारत सरकार ने हम भारतीयों को आधार पहचान पत्र के अलावा कुछ दिया ही नहीं.

बहरहाल अब बिहार बंद पर आते हैं.बिहार में चल रहे मतदाता सूची पुनरीक्षण के खिलाफ  बिहार बंद का असर कई जिलों में नजर आया है। राजधानी पटना के अलावा गोपालगंज, दरभंगा, आरा, किशनगंज, गया जी, सहरसा समेत कई जिलों में बंद समर्थकों ने जमकर प्रदर्शन किया है। इस दौरान कहीं ट्रेनें रोक दी गईं तो कहीं सड़क पर आगजनी कर आवागमन को बाधित कर दिया गया। महागठबंधन में शामिल घटक दलों ने वोटर लिस्ट रिवीजन के खिलाफ यह बंद बुलाया था। पटना की सड़क पर राहुल गांधी, तेजस्वी यादव समेत अन्य दिग्गज नेता नजर आए। मुजफ्फरपुर में वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन को भी रोका गया। सीपीआई माले ने बिहार बंद को ऐतिहासिक बताया। दूसरी ओर, मजदूर एवं कर्मचारी संगठनों ने भी विभिन्न मांगों को लेकर बुधवार को बिहार समेत देश भर में बंद बुलाया। बिहार ग्रामीण बैंक में हड़ताल से 10 हजार करोड़ रुपये के कारोबार का नुकसान हुआ।

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पहले से तय कार्यक्रम के तहत इस बिहार बंद को धार देने के लिए हवाई जहाज से पटना पहुंचे। पटना पहुंचने के बाद राहुल गांधी आयकर गोलंबर पर पहुंचे। इनकम टैक्स गोलंबर पर पहले से ही बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव मौजूद थे। यहां महागठबंधन के कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड़ा हुआ था। इसके बाद तेजस्वी यादव, राहुल गांधी, दीपांकर भट्टाचार्य और मुकेश सहनी जैसे दिग्गज नेता एक वाहन पर सवार होकर मार्च के लिए निकले। गाड़ी पर दिग्गज नेताओं के साथ पटना की सड़क पर कार्यकर्ता लगातार पैदल मार्च कर रहे थे।

पैदल मार्च करते हुए यह हुजूम शहीद स्मारक पहुंचा। यहां निर्वाचन कार्यालय से कुछ दूर पहले ही पुलिस ने बैरिकेडिंग कर रखी थी। कई कार्यकर्ताओं ने यहां बैरिकेडिंग को तोडऩे का भी प्रयास किया औऱ कई बार स्थिति तनावपूर्ण भी बनी। पुलिस लगातार बैरिकेडिंग ना तोड़ने की अपील यहां कर रही थी। इस दौरान महागठबंधन के नेताओं ने अपने संबोधन में केंद्र और राज्य सरकार को घेरा तथा बिहार चुनाव से पहले मतदाता पुनरीक्षण को घातक बताया. 

सरकार और केंचुआ की कुंभकर्णी नींद तोडने के लिए बंद से ज्यादा क्या किया जा सकता है. अब भी यदि केंचुआ, केंचुआ सरका न जागी तो 1975की समग्र क्रांति के अलावा शायद कोई दूसरा विकल्प बचेगा नहीं.

@ राकेश अचल

शनिवार, 5 जुलाई 2025

बेशक बेबाकी से झूठ बोलती है हमारी सरकार

 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों को बर्दास्त न कर पाने वाली सरकार यदि कहे कि- भारत सरकार आस्था और धर्म से जुड़े विश्वासों और परंपराओं पर कोई रुख़ नहीं अपनाती और न ही इस पर कोई टिप्पणी करती है."या "सरकार ने हमेशा भारत में सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन किया है और आगे भी ऐसा करती रहेगी."तो आप भरोसा करेंगे? 

 धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर सरकार और सरकारी पार्टी के दोहरे रवैये की पोल न खुलती यदि तिब्बती बौद्ध धर्म के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा को लेकर  केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजु के बयान पर आंखे लाल न करता. इधर चीन ने आंखें तरेरीं और उधर भारतीय विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी  कर सफाई दे डाली..

विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा, "हमने दलाई लामा की ओर से दलाई लामा संस्था की निरंतरता को लेकर दिए गए बयान से जुड़ी रिपोर्ट्स देखी हैं."उन्होंने कहा, "भारत सरकार आस्था और धर्म से जुड़े विश्वासों और परंपराओं पर कोई रुख़ नहीं अपनाती और न ही इस पर कोई टिप्पणी करती है."बयान में आगे कहा गया, "सरकार ने हमेशा भारत में सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन किया है और आगे भी ऐसा करती रहेगी."

 आपको बता दें कि दलाई लामा ने बुधवार को कहा था कि दलाई लामा की संस्था जारी रहेगी.इस बात का सीधा मतलब यह है कि मौजूदा दलाई लामा की मृत्यु के बाद भी उनका उत्तराधिकारी होगा.

लेकिन दलाई लामा के उत्तराधिकारी के मुद्दे पर चीन ने कड़ा ऐतराज़ जताया है.

दलाई लामा के संदेश को ख़ारिज करते हुए चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उनके पुनर्जन्म को चीनी सरकार की मंज़ूरी की ज़रूरत है.साथ ही चीन ने कहा कि दलाई लामा के उत्तराधिकार की प्रक्रिया में चीन के क़ानूनों और नियमों के साथ-साथ 'धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं' का पालन होना चाहिए.

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी की पहचान केवल लॉटरी सिस्टम के माध्यम से की जा सकती है - जहां नाम एक सुनहरे कलश से निकाले जाते हैं.

दलाई लामा, तेनज़िन ग्यात्सो, मेरे जन्म से ठीक एक महिने पहले 31 मार्च 1959 को भारत आए थे.। वे तिब्बत की राजधानी ल्हासा से 17 मार्च 1959 को चीनी शासन के खिलाफ असफल विद्रोह के बाद भागकर भारत आए। चीनी सेना द्वारा तिब्बत पर कब्जा (1950) और बढ़ते दमन के कारण उनकी जान को खतरा था। 15 दिनों तक हिमालय पार करने के बाद, उन्होंने अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में भारतीय सीमा में प्रवेश किया। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें शरण दी। तब से वे हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती समुदाय के साथ रह रहे हैं, जहां उन्होंने निर्वासित तिब्बती सरकार और गदेन फोडरंग ट्रस्ट की स्थापना की। चीन उन्हें अलगाववादी मानता है, क्योंकि वे तिब्बत के लिए स्वायत्तता की वकालत करते हैं।

इस मामले में केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने 3 जुलाई 2025 को कहा था कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी का चयन केवल दलाई लामा और उनकी स्थापित संस्था, गादेन फोडरंग ट्रस्ट, द्वारा ही किया जाएगा, जिसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होगी। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह फैसला तिब्बती बौद्ध परंपराओं और दलाई लामा की इच्छा के अनुसार होगा। यह बयान दलाई लामा के उस कथन के बाद आया, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी संस्था जारी रहेगी और केवल गादेन फोडरंग ट्रस्ट को उनके पुनर्जन्म को मान्यता देने का अधिकार होगा।

 रिजिजू ने यह भी कहा कि वह एक बौद्ध श्रद्धालु के रूप में बोल रहे हैं, न कि भारत सरकार की ओर से, और दलाई लामा के सभी अनुयायी चाहते हैं कि उत्तराधिकारी का चयन स्वयं दलाई लामा करें।इस बयान पर चीन ने आपत्ति जताई, जिसके विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि भारत को तिब्बत (शिजांग) से संबंधित मुद्दों पर सावधानी बरतनी चाहिए और दलाई लामा के उत्तराधिकारी को चीनी कानूनों, धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार चुना जाना चाहिए, जिसमें चीन की मंजूरी आवश्यक है। 

अब असली मुद्दे पर आते हैं कि क्या सचमुच भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और आस्था के मामलों में सरकार दखल नहीं देती? यदि ये सही है तो सरकार तीन तलाक और वक्फ बोर्ड जैसे कानून क्यों बनाती है? कांवड यात्रा पर फूल बरसाती है और मस्जिदों, मजारों पर बुलडोजर क्यों चलाती है.क्यों मदरसों में दखल देती है. क्यों एक धर्म विशेष के पूजाघरों पर सरकारी खजाना खोल देती है? हकीकत ये है कि भारत सरकार चीन से डरती है लेकिन बांग्लादेश से नहीं. सरकार  को तिब्बत के मुद्दे पर सफाई देने की क्या जरुरत थी? सरकार जैसे सीज फायर पर खामोश रही वैसे ही तिब्बत के मामले में चीन की आपत्ति को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देती! 

बांग्लादेशियो से नफरत करने वाला भारत बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री को शरण दे सकता है. तस्लीमा नसरीन को शरण दे सकता है लेकिन 66साल से भारत में शरणार्थी दलाई लामा को संरक्षण देते हुए कांप जाता है. आज 66साल बाद भी तिब्बती भारत के नागरिक ननही बल्कि शरणार्थी हैं. बहरहाल धार्मिक स्वतंत्रता और आस्था के मुद्दे पर यदि सचमुच भारत सरकार जो कह रही है वो सच है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

@  राकेश अचल

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

नोटबंदी के बाद अघोषित वोटबंदी की ओर देश

 

लिखने के लिए विषय और मुद्दे कभी समाप्त नहीं होते. बीती रात मैने मप्र की राजनीति पर लिखने का मन बनाया था किंतु लिख रहा हूं बिहार की राजनीति के बहाने देश पर थोपी जा रही वोटबंदी की. सरकार नोटबंदी के बाद विपक्ष पर जीत हासिल करने के लिये वोटबंदी का सहारा ले रही है. इसके लिए सरकार ने अपने केंचुए को सक्रिय कर दिया है. केंचुआ अचानक कोबरा की मुद्रा में नजर आ रहा है.

नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल 9 जून 2024 को शुरू हुआ, जब वे भारत के प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार शपथ लेने वाले दूसरे नेता बने, पहले जवाहरलाल नेहरू थे। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने 293 सीटें जीतीं, लेकिन भाजपा अकेले 240 सीटों के साथ बहुमत से चूक गई। इससे मोदी को तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल (यूनाइटेड) जैसे गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ रहा है, जिससे उनके पिछले एकल-निर्णयकारी शासन की तुलना में सहयोगात्मक शासन शैली की आवश्यकता है।किसी ने नहीं सोचा था कि बैशाखियों पर टिकी सरकार विनम्र होने के वजाय और दंभी हो जाएगी.

मोदी का यह कार्यकाल उनके पिछले कार्यकालों की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि गठबंधन की गतिशीलता और एक मजबूत विपक्ष (इंडिया गठबंधन, 234 सीटें) के कारण उन्हें सत्ता साझा करनी पड़ रही है। विश्लेषकों का कहना है कि आर्थिक मुद्दे, जैसे महामारी के बाद बेरोजगारी, और धार्मिक ध्रुवीकरण की आलोचना ने मतदाताओं को प्रभावित किया। फिर भी, मोदी विकास और हिंदू राष्ट्रवाद के अपने एजेंडे पर जोर दे रहे हैं, 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखते हुए।क्या आप किसी विशिष्ट पहलू, जैसे नीतियों या राजनीतिक चुनौतियों, पर अधिक जानकारी चाहेंगे?इसी के तहत मोदी जी किसी भी सूरत में बिहार जीतना चाहते हैं. बिहार जीते बिना वे बंगाल नहीं जीत सकते.

बिहार जीतने के लिए भाजपा ने बिहार की मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण और सत्यापन के बहाने कम से कम 3करोड मतदाओं को मताधिकार से वंचित करने की रणनीति बनाई और इस पर अमल के लिए केंद्रीय चुनाव आयोग को सक्रिय कर दिया. केंचुए ने मतदाता सत्यापन के लिए जो नियम बनाए हैं वे अमेरिका में अवैध प्रवासियों के लिए बनाए गये नियमों से भी ज्यादा कठिन हैं. यानि वे 3करोड मतदाता रोजी रोटी के लिए बिहार से बाहर हैं वे पहले सत्यापन के लिए अपने घर आएं. अपने माँ बाप के जन्म प्रमाण पत्र जुटाएं जो असंभव है. और जुटा भी लें तो मतदान के दिन फिर बिहार आएं.

विपक्ष ने इन अव्यावहारिक नियमों का विरोध करत हुए केंचुआ प्रमुख से मलना चाहा तो उन्होने राजनतिक दलों के प्रतिनिधियों से मिलने के नये नियम बना दिए. केंचुआ एक दल के केवल अध्यक्ष और महासचिव से ही मिलना चाहता है. यानि केंचुए का दफ्तर न हुआ बल्कि रक्षा मंत्रालय हो गया. लग ऐसा रहा है कि केंचुआ भाजपा य संघ का कोई नुषांगिक संगठन बन गया है.

अब सवाल ये है कि वोटबंदी के लिए तमाम अनैतिक, गैर कानूनी तरीके अपनाकर क्या भाजपा बिहार को महाराष्ट्र और हरियाणा की तरह जीत लेगी? क्या भाजपा इस चुनाव में अपने सहयोगी दलों को शिवसेना और एनसीपी की तरह तोड सकेगी? क्या भाजपा बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को एकनाथ शिंदे की तरह पदावनत कर पाएगी? यदि भाजपा ये सब न कर पायी तो उसे झारखण्ड की तरह बिहार में मुंह की खाना पडेगी. वोटबंदी शायद ही भाजपा के काम आए.

नोटबंदी को देश का विपक्ष नहीं रोक पाया था और यदि वोटबंदी को भी  न रोक पाया तो विपक्ष निर्मूल हो जाएगा. फिर देश में न धर्मनिरपेक्षता बचेगी और न समाजवाद. देश अखंड भी शायद न रह पाए और तमाम राज्य जम्मू काश्मीर की तरह खंडित कर दिए जाएं. सत्ता में अनंतकाल तक रहने की लालसा पूरी करने के लिए भाजपा अपने प्रधानमंत्री बडे  से बडा पाप करा सकती है. वैसे भी मौजूदा प्रधानमंत्री का ये अंतिम कार्यकाल है. संघ को अब 400 पार कराने वाला नेता चाहिए, 240 पर अटकने वाला नहीं. बिहार ही संघ, भाजपा और मोदीजी की किस्मत का फैसला करेगा. बिहार समग्र क्रांति का जनक है.

@ राकेश अचल

शनिवार, 21 जून 2025

ग्राम बसरोही में रेट्रॉफिटिंग नल जल योजना की स्वीकृति के बावजूद नहीं हुआ कार्य

छतरपुर।  ग्राम बसरोही, ग्राम पंचायत एरोरा तहसील बिजावर, जिला छतरपुर, मध्यप्रदेश शासन लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा पत्र क्रमांक F08-03/2020/2/34, दिनाँक 27 जुलाई 2022 के माध्यम से ग्राम बसरोही रैदासपुरा के लिए रेट्रॉफिटिंग नल जल योजना स्वीकृत की गई थी। सलंग्न फाइल के बिंदु क्रमांक 653 पर ग्राम बसरोही का नाम अंकित है, तथा इस योजना के लिए 50.24 लाख रुपये की प्रशासकीय स्वीकृति प्रदान की गई थी।

लेकिन दिनाँक 21/06/2025 तक इस योजना का क्रियान्वयन नहीं किया गया है और न ही पानी की टंकी का निर्माण कार्य शुरू किया गया है। ग्राम बसरोही रैदासपुरा में वर्तमान में तीन शासकीय ट्यूबवेल मौजूद हैं जिनमें पर्याप्त पानी उपलब्ध है, बावजूद इसके विभाग के संबंधित अधिकारी इस योजना को लागू नहीं करना चाहते हैं।

इसकी मूल वजह ग्राम की शत-प्रतिशत जनसंख्या का अनुसूचित जाति से होना और गांव का अत्यधिक पिछड़ा होना प्रतीत होता है, जिससे अधिकारियों की गांव के प्रति अनुसूचित जाति विरोधी मानसिकता झलकती है।

अतः हम संबंधित अधिकारियों से अनुरोध करते हैं कि ग्राम बसरोही रैदासपुरा में रेट्रॉफिटिंग योजना का जल्द से जल्द क्रियान्वयन किया जाए और दोषी अधिकारियों के विरुद्ध तत्काल प्रभाव से निलंबन की कार्यवाही की जाए तथा अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम के तहत कार्यवाही की जाए।

राहुल अहिरवार

मो:–7697959515




मंगलवार, 10 जून 2025

क्योंकि सभी के पास हैं आजकल ' ठंडे बस्ते '

जैसे सरकारी दफ्तरों में फाइलों पर बंधा एक लालफीता होता है, ठीक वैसे ही हमारी सरकारों, राजनीतिक दलों और निर्णायक संस्थाओं के पास एक ठंडा बस्ता होता है. इस ठंडे बस्ते में वे गर्म मुद्दे डाले जाते हैं जिनसे मुल्क में, समाज में आग लगने की आशंका होती है.

"ठंडा बस्ता " एक हिंदी मुहावरा है, जिसका अर्थ है किसी काम, योजना, या मुद्दे को अनिश्चितकाल के लिए टाल देना या उसे नजरअंदाज करना। जब कोई चीज "ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है," तो इसका मतलब है कि उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही और वह प्राथमिकता से हट चुकी है।ठंडे बस्ते का इस्तेमाल हर सरकार करती है. फिर चाहे सरकार किसी भी दल की हो. सरकारों की देखादेखी ठंडे बस्ते का चलन हर संस्था में बढ गया है. हमारी कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका तक में ठंडे बस्ते को पूरा पूरा सम्मान मिलता आया है. 

ठंडे बस्ते के आविष्कारक का पता नहीं है. इस पर शोध होना बाकी है. लगता है इस काम को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है.ठंडा बस्ता दो शब्दों से मिलकर बनता है. एक शब्द है ' ठंडा ' और दूसरा है ' बस्ता'. ठंडा को हिंदी में शीतल कहते हैं. और ब, बस्ते को पटका. ठंडे बस्ते के शब्द को लेकर गफलत है. कोई इसे हिंदी का शब्द मानता है तो कोई उर्दू का. लेकिन मैं इसे हिंदुस्तानी शब्द मानता हूं.. मै ठंडे बस्ते की 'कूलिंग 'क्षमता का मुरीद हूँ. मेरी अखंड मान्यता है कि यदि हमारे पास ठंडा बस्ता न होता तो लोकतंत्र खतरे में पड जाता.

लोकतंत्र को खतरे से बचाने के लिए हमारे यहाँ इमरजेंसी का इस्तेमाल किया गया, लेकिन दांव उलटा पडा. लोगों ने इमरजेंसी को ही लोकतंत्र के लिए खतरा मान लिया और इसके खिलाफ जनादेश दिया, लेकिन ठंडे बस्ते के साथ ऐसा नहीं है.

देश में पिछले 11साल में ऐसे दर्जनों नजीरें सामने आईं हैं जहाँ लोकतंत्र बचानेक्षके नाम पर इमरजेंसी के बजाय ठंडे बस्ते का इस्तेमाल किया गया और  एक भी जनादेश ठंडे बस्ते के खिलाफ नहीं आया. ठंडे बस्ते का सर्वाधिक इस्तेमाल हमारे लोकप्रिय नेता और सरकारें करतीं हैं. आपको याद होगा कि देश में किसानों ने सालों साल चलने वाला एक आंदोलन 3कृषि कानूनों के खिलाफ किया था. आंदोलन में 700से ज्यादा किसान शहीद हुए थे. हारकर सरकार ने तीनों कानूनों को वापस लेकर ठंडे बस्ते में डाल दिया और आजतक उन्हे बाहर नहीं निकाला. सरकार जो भी नया कानून बनाती है उसमें से अधिकांश को ठंडे बस्ते में जाना ही पडता है. जो कानून और जो फैसले ठंडे बस्ते में नहीं जाते उन्हे बाद में मुसीबतों का सामना करना पडता है.

सरकार की तरह देश की तमाम छोटी बडी अदालतें  भी ठंडे बस्ते का इस्तेमाल करतीं हैं. अदालतों में तमाम मामलों में सुनवाई पूरी होने के बाद फैसले सुरक्षित रख लिए जाते हैं. ये फैसले ठंडे बस्तों में ही तो रखे जाते हैं. ताजा फैसला वक्फ बोर्ड कानून का है. आप सरकार हो या अदालत किसी को भी ठोडा बस्ता खोलने के लिए मजबूर नहीं कर सकते. ये सभी निर्णायक संस्थाओं का संवैधानिक अधिकार है. अभी तक इस अधिकार को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी गई. इसीलिए ठंडे बस्ते वजूद में हैं.

हमारे यहाँ जितनी भी छोटी बडी जांच एजेंसियां हैं वे ठंडे बस्तों का इस्तेमाल करतीं हैं. पुलिस, ईडी, सीबीआई सभी को ठंडे बस्ते प्रिय हैं. ये जांच एजेंसियां देश काल, परिस्थिति के अनुरूप ठंडे बस्तों का इस्तेमाल करती आई हैं. आगे भी करतीं रहेंगी. देश के ठंडे बस्ते हमेशा सार्थक साबित होते हैं. ठंडे बस्तों को बांधना और खोलना भी एक ललित कला है. कब किस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालना और कब, किस मुद्दे को ठंडे बस्ते से निकालना है.

 भारत में ऐसे कई मामले हैं, जिनमें आपराधिक, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, और सामाजिक मुद्दों से जुड़े मामले शामिल हैं।1984 सिख विरोधी दंगों के कई मामले आज भी पूरी तरह सुलझे नहीं हैं। कई पीड़ितों को अभी तक न्याय नहीं मिला, और कुछ प्रमुख आरोपी कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण सजा से बचते रहे।हाई-प्रोफाइल हत्याएं जेसिका लाल हत्याकांड (1999) और प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड (1996), लंबे समय तक लंबित रहे। हालांकि इनमें अंततः सजा हुई, लेकिन देरी ने सिस्टम की कमियों को उजागर किया।नदिमार्ग नरसंहार (2003) के मामले में, 2022 में जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने फिर से सुनवाई शुरू करने के निर्देश दिए, क्योंकि यह मामला लंबे समय तक ठंडे बस्ते में रहा। बोफोर्स घोटाला (1980-90): बोफोर्स तोप सौदे में कथित रिश्वत के मामले की जांच दशकों तक चली, लेकिन कोई बड़ा दोषी सजा नहीं पाया। यह मामला समय के साथ ठंडा पड़ गया।2जी स्पेक्ट्रम घोटाला (2008): इस बड़े भ्रष्टाचार मामले में कई आरोपियों को अंततः बरी कर दिया गया, और जांच की धीमी गति ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।कोयला घोटाला (कोलगेट): कोयला ब्लॉक आवंटन में अनियमितताओं के मामले में कई जांचें शुरू हुईं, लेकिन अधिकांश मामलों में ठोस परिणाम नहीं मिले।

आतंकवाद और सुरक्षा से जुड़े मामले जैसे 1993 मुंबई बम धमाके के मामले में हालांकि कुछ मुख्य आरोपियों को सजा हुई, कई सह-आरोपी अभी भी फरार हैं, और कुछ पहलुओं की जांच अधूरी है।पठानकोट हमले (2016)  की जांच में कई सवाल अनुत्तरित रहे, और मामला धीरे-धीरे सुर्खियों से बाहर हो गया.

राजस्थान और अन्य राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के कई मामले, जैसे करौली में दलित युवती की हत्या (2023), अभी तक पूरी तरह सुलझे नहीं हैं।महिलाओं के खिलाफ अपराध: कई बलात्कार और हिंसा के मामले, जैसे निर्भया केस के बाद के कुछ मामले, जांच और सुनवाई में देरी के कारण लंबित रहते हैं।

भारत में इंटरनेट शटडाउन के कई मामले, जैसे कश्मीर में 2019 के बाद हुए शटडाउन, कानूनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, लेकिन कई याचिकाएं कोर्ट में लंबित हैं।दिल्ली शराब घोटाला (2021-22): इस मामले में कुछ आरोपियों को राहत मिली, लेकिन जांच अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई।ठंडे बस्ते में जाने के कारणन्यायिक प्रक्रिया में देरी: भारत में कोर्ट में लाखों मामले लंबित हैं। 2023 तक, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स में करीब 50 लाख मामले पेंडिंग थे।जांच एजेंसियों की सुस्ती: सीबीआई, एनआईए जैसी एजेंसियों पर संसाधनों की कमी और राजनीतिक दबाव के आरोप लगते हैं।साक्ष्यों का अभाव: कई मामलों में साक्ष्य एकत्र करने में देरी या गवाहों का सहयोग न मिलना।राजनीतिक हस्तक्षेप: कुछ मामलों में राजनीतिक प्रभाव के कारण जांच रुक जाती है।वर्तमान स्थितिकई संगठन और कार्यकर्ता इन मामलों को फिर से उठाने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, 2024 में दलित और आदिवासी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण से जुड़े फैसले के खिलाफ भारत बंद का आह्वान किया, जिससे कुछ पुराने मुद्दों पर फिर से ध्यान गया।

यानि ठंडे बस्तों की कथा अनंत है, अनादि है. मै इसे यहीं समाप्त करता हूँ यानि ठंडे बस्ते में डालता हूँ. शुक्र मनाइये कि लालफीताशाही की तरह अभी देश में ठंडा बस्ताशाही जैसी कोई चीज मुहावरा नहीं बनी है.

@ राकेश अचल

रविवार, 1 जून 2025

जब सिंदूर जाएगा तब कोरोना आएगा ?

मै भविष्य वक्ता नहीं हूँ लेकिन विगत के आधार पर आगत की पदचाप सुन लेता हूँ. अपने इसी अनुभव के आधार पर मै कह रहा हूँ कि अव्वल तो सिंदूर अभी जाएगा नहीं और यदि खुदा न खास्ता गया भी तो उसकी जगह कोरोना आ जाएगा और आपको एक बार फिर अपने घरों में कैद कर दिया जाएगा, ताकि आप सरकार को ऊल-जलूल सवाल पूछकर परेशान न कर सकें.

दर असल आपरेशन सिंदूर के बाद जिस सच को सरकार देश से छिपाने की कोशिश कर रही है, वो सच छिप नहीं रहा. सरकार सवाल टालने में दक्ष है लेकिन सेना नहीं.

पाकिस्तान के खिलाफ भारत की कार्रवाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सीडीएस अनिल चौहान ने कहा, 'मुझे लगता है कि लड़ाकू विमान का गिरना महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि वे क्यों गिरे।' जनरल चौहान से पूछा गया कि क्या इस महीने पाकिस्तान के साथ चार दिनों तक चले सैन्य टकराव के दौरान भारत ने लड़ाकू विमान गंवाए थे।अब कांग्रेस खामखां सीडीएस की स्वीकारोक्ति पर खामखां सवाल कर रही है जबकि उसे पता है कि उसे जबाब नहीं मिलेगा.

सरकार जनता को खुला नहीं छोडना चाहती. यदि सिंदूर का रंग फीका पडा तो सरकार तमाम ज्वलंत मुद्दों पर कोविड की चादर डाल देगी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अभी से इस दिशा में काम शुरू कर दिया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार देश में कोविड के एक्टिव केसों की संख्या 3,395 तक पहुंच गई है, जबकि पिछले 24 घंटों में 4 लोगों की मौत हुई है. केरल में सबसे ज्यादा 1336 एक्टिव केस हैं. बीते कुछ दिनों में ही कोरोना के एक्टिव केसों की संख्या में भारी वृद्धि देखने को मिली है. विशेषज्ञों ने लोगों से मास्क पहनने, भीड़ से बचने और जरूरत पड़ने पर टेस्ट कराने की अपील की है.

करें, भीड़भाड़ से बचाव और मास्क का प्रयोग (जहां आवश्यक हो) करें.

स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली, केरल, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में एक-एक व्यक्ति की मौत हुई है. दिल्ली में 71 वर्षीय बुजुर्ग की मौत निमोनिया, सेप्टिक शॉक और एक्यूट किडनी इंजरी के कारण हुई. कर्नाटक में 63 वर्षीय मरीज, केरल में 59 वर्षीय मरीज और उत्तर प्रदेश में 23 वर्षीय युवक की मौत हुई है.बीते कुछ दिनों में ही कोरोना के एक्टिव केसों की संख्या में भारी वृद्धि देखने को मिली है. 22 मई को जहां सिर्फ 257 सक्रिय मामले थे, वहीं 26 मई को यह आंकड़ा बढ़कर 1010 और अब 3395 हो गया है. बीते 24 घंटों में 685 नए मामले दर्ज किए गए हैं.

देश में यदि कोरोना की चाल बढी तो एक बार फिर संक्रमण रोकने के लिए वे सब कदम उठाए जा सकते हैं जो आपको घरों में कैद करने के लिए काफी हैं. ये बात अलग है कि देश कोरोना के दो डोज के अलावा तीसरा बूस्टर डोज लगाए बैठा है, इसलिए कोरोना होना नहीं चाहिए. लेकिन यदि सिंदूर की तरह कोरोना सियासत का मददगार बन सकता है तो कौन उससे परहेज करेगा?

आपको पता है कि जैसे सरकार ने आपरेशन सिंदूर के बाद अचानक सीजफायर का ऐलान किया था उसी तरह लोकनिंदा के बाद अचानक सियासी सिंदूर खेला पर भी विराम लगा दिया है. भाजपा ने खंडन किया है कि पार्टी 9 जून से घर घर सिंदूर बांटने नहीं जा रही है. हालांकि भाजपा और प्रधानमंत्री जी का सिंदूर मोह कम नहीं हुआ है. प्रधानमंत्री की भोपाल रैली में भी राज्य सरकार ने अग्र पंक्ति में 30हजार आंगनवाडी कार्यकर्ताओ को सिंदूरी साडियां पहना ही दी. खुद प्रधानमंत्री महिला सशक्तिकरण सम्मेलन में 'गोली और गोला ' की भाषा का इस्तेमाल किए बिना रह नहीं सके.

मेरा अनुमान है कि भाजपा के सिंदूर खेला में कोई फौरी क्षेपक अवश्य आ सकता है लेकिन अगले एक साल तक सिंदूर किसी न किसी रूप में भारतीय राजनीति का हिस्सा बना रहेगा. बिना सिंदूर वापरे भाजपा भविष्य की सियासी चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर सकती. जब तक सिंदूर भाजपा नेताओं की पेशानी पर चमकता रहेगा, तब तक भाजपा का सुहाग कांग्रेस या इंडिया गठबंधन उजाड नहीं सकता.

@  राकेश अचल