भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों को बर्दास्त न कर पाने वाली सरकार यदि कहे कि- भारत सरकार आस्था और धर्म से जुड़े विश्वासों और परंपराओं पर कोई रुख़ नहीं अपनाती और न ही इस पर कोई टिप्पणी करती है."या "सरकार ने हमेशा भारत में सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन किया है और आगे भी ऐसा करती रहेगी."तो आप भरोसा करेंगे?
धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर सरकार और सरकारी पार्टी के दोहरे रवैये की पोल न खुलती यदि तिब्बती बौद्ध धर्म के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा को लेकर केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजु के बयान पर आंखे लाल न करता. इधर चीन ने आंखें तरेरीं और उधर भारतीय विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर सफाई दे डाली..
विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा, "हमने दलाई लामा की ओर से दलाई लामा संस्था की निरंतरता को लेकर दिए गए बयान से जुड़ी रिपोर्ट्स देखी हैं."उन्होंने कहा, "भारत सरकार आस्था और धर्म से जुड़े विश्वासों और परंपराओं पर कोई रुख़ नहीं अपनाती और न ही इस पर कोई टिप्पणी करती है."बयान में आगे कहा गया, "सरकार ने हमेशा भारत में सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन किया है और आगे भी ऐसा करती रहेगी."
आपको बता दें कि दलाई लामा ने बुधवार को कहा था कि दलाई लामा की संस्था जारी रहेगी.इस बात का सीधा मतलब यह है कि मौजूदा दलाई लामा की मृत्यु के बाद भी उनका उत्तराधिकारी होगा.
लेकिन दलाई लामा के उत्तराधिकारी के मुद्दे पर चीन ने कड़ा ऐतराज़ जताया है.
दलाई लामा के संदेश को ख़ारिज करते हुए चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उनके पुनर्जन्म को चीनी सरकार की मंज़ूरी की ज़रूरत है.साथ ही चीन ने कहा कि दलाई लामा के उत्तराधिकार की प्रक्रिया में चीन के क़ानूनों और नियमों के साथ-साथ 'धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं' का पालन होना चाहिए.
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी की पहचान केवल लॉटरी सिस्टम के माध्यम से की जा सकती है - जहां नाम एक सुनहरे कलश से निकाले जाते हैं.
दलाई लामा, तेनज़िन ग्यात्सो, मेरे जन्म से ठीक एक महिने पहले 31 मार्च 1959 को भारत आए थे.। वे तिब्बत की राजधानी ल्हासा से 17 मार्च 1959 को चीनी शासन के खिलाफ असफल विद्रोह के बाद भागकर भारत आए। चीनी सेना द्वारा तिब्बत पर कब्जा (1950) और बढ़ते दमन के कारण उनकी जान को खतरा था। 15 दिनों तक हिमालय पार करने के बाद, उन्होंने अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में भारतीय सीमा में प्रवेश किया। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें शरण दी। तब से वे हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती समुदाय के साथ रह रहे हैं, जहां उन्होंने निर्वासित तिब्बती सरकार और गदेन फोडरंग ट्रस्ट की स्थापना की। चीन उन्हें अलगाववादी मानता है, क्योंकि वे तिब्बत के लिए स्वायत्तता की वकालत करते हैं।
इस मामले में केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने 3 जुलाई 2025 को कहा था कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी का चयन केवल दलाई लामा और उनकी स्थापित संस्था, गादेन फोडरंग ट्रस्ट, द्वारा ही किया जाएगा, जिसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होगी। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह फैसला तिब्बती बौद्ध परंपराओं और दलाई लामा की इच्छा के अनुसार होगा। यह बयान दलाई लामा के उस कथन के बाद आया, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी संस्था जारी रहेगी और केवल गादेन फोडरंग ट्रस्ट को उनके पुनर्जन्म को मान्यता देने का अधिकार होगा।
रिजिजू ने यह भी कहा कि वह एक बौद्ध श्रद्धालु के रूप में बोल रहे हैं, न कि भारत सरकार की ओर से, और दलाई लामा के सभी अनुयायी चाहते हैं कि उत्तराधिकारी का चयन स्वयं दलाई लामा करें।इस बयान पर चीन ने आपत्ति जताई, जिसके विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि भारत को तिब्बत (शिजांग) से संबंधित मुद्दों पर सावधानी बरतनी चाहिए और दलाई लामा के उत्तराधिकारी को चीनी कानूनों, धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार चुना जाना चाहिए, जिसमें चीन की मंजूरी आवश्यक है।
अब असली मुद्दे पर आते हैं कि क्या सचमुच भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और आस्था के मामलों में सरकार दखल नहीं देती? यदि ये सही है तो सरकार तीन तलाक और वक्फ बोर्ड जैसे कानून क्यों बनाती है? कांवड यात्रा पर फूल बरसाती है और मस्जिदों, मजारों पर बुलडोजर क्यों चलाती है.क्यों मदरसों में दखल देती है. क्यों एक धर्म विशेष के पूजाघरों पर सरकारी खजाना खोल देती है? हकीकत ये है कि भारत सरकार चीन से डरती है लेकिन बांग्लादेश से नहीं. सरकार को तिब्बत के मुद्दे पर सफाई देने की क्या जरुरत थी? सरकार जैसे सीज फायर पर खामोश रही वैसे ही तिब्बत के मामले में चीन की आपत्ति को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देती!
बांग्लादेशियो से नफरत करने वाला भारत बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री को शरण दे सकता है. तस्लीमा नसरीन को शरण दे सकता है लेकिन 66साल से भारत में शरणार्थी दलाई लामा को संरक्षण देते हुए कांप जाता है. आज 66साल बाद भी तिब्बती भारत के नागरिक ननही बल्कि शरणार्थी हैं. बहरहाल धार्मिक स्वतंत्रता और आस्था के मुद्दे पर यदि सचमुच भारत सरकार जो कह रही है वो सच है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
@ राकेश अचल
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