मंगलवार, 10 जून 2025

क्योंकि सभी के पास हैं आजकल ' ठंडे बस्ते '

जैसे सरकारी दफ्तरों में फाइलों पर बंधा एक लालफीता होता है, ठीक वैसे ही हमारी सरकारों, राजनीतिक दलों और निर्णायक संस्थाओं के पास एक ठंडा बस्ता होता है. इस ठंडे बस्ते में वे गर्म मुद्दे डाले जाते हैं जिनसे मुल्क में, समाज में आग लगने की आशंका होती है.

"ठंडा बस्ता " एक हिंदी मुहावरा है, जिसका अर्थ है किसी काम, योजना, या मुद्दे को अनिश्चितकाल के लिए टाल देना या उसे नजरअंदाज करना। जब कोई चीज "ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है," तो इसका मतलब है कि उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही और वह प्राथमिकता से हट चुकी है।ठंडे बस्ते का इस्तेमाल हर सरकार करती है. फिर चाहे सरकार किसी भी दल की हो. सरकारों की देखादेखी ठंडे बस्ते का चलन हर संस्था में बढ गया है. हमारी कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका तक में ठंडे बस्ते को पूरा पूरा सम्मान मिलता आया है. 

ठंडे बस्ते के आविष्कारक का पता नहीं है. इस पर शोध होना बाकी है. लगता है इस काम को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है.ठंडा बस्ता दो शब्दों से मिलकर बनता है. एक शब्द है ' ठंडा ' और दूसरा है ' बस्ता'. ठंडा को हिंदी में शीतल कहते हैं. और ब, बस्ते को पटका. ठंडे बस्ते के शब्द को लेकर गफलत है. कोई इसे हिंदी का शब्द मानता है तो कोई उर्दू का. लेकिन मैं इसे हिंदुस्तानी शब्द मानता हूं.. मै ठंडे बस्ते की 'कूलिंग 'क्षमता का मुरीद हूँ. मेरी अखंड मान्यता है कि यदि हमारे पास ठंडा बस्ता न होता तो लोकतंत्र खतरे में पड जाता.

लोकतंत्र को खतरे से बचाने के लिए हमारे यहाँ इमरजेंसी का इस्तेमाल किया गया, लेकिन दांव उलटा पडा. लोगों ने इमरजेंसी को ही लोकतंत्र के लिए खतरा मान लिया और इसके खिलाफ जनादेश दिया, लेकिन ठंडे बस्ते के साथ ऐसा नहीं है.

देश में पिछले 11साल में ऐसे दर्जनों नजीरें सामने आईं हैं जहाँ लोकतंत्र बचानेक्षके नाम पर इमरजेंसी के बजाय ठंडे बस्ते का इस्तेमाल किया गया और  एक भी जनादेश ठंडे बस्ते के खिलाफ नहीं आया. ठंडे बस्ते का सर्वाधिक इस्तेमाल हमारे लोकप्रिय नेता और सरकारें करतीं हैं. आपको याद होगा कि देश में किसानों ने सालों साल चलने वाला एक आंदोलन 3कृषि कानूनों के खिलाफ किया था. आंदोलन में 700से ज्यादा किसान शहीद हुए थे. हारकर सरकार ने तीनों कानूनों को वापस लेकर ठंडे बस्ते में डाल दिया और आजतक उन्हे बाहर नहीं निकाला. सरकार जो भी नया कानून बनाती है उसमें से अधिकांश को ठंडे बस्ते में जाना ही पडता है. जो कानून और जो फैसले ठंडे बस्ते में नहीं जाते उन्हे बाद में मुसीबतों का सामना करना पडता है.

सरकार की तरह देश की तमाम छोटी बडी अदालतें  भी ठंडे बस्ते का इस्तेमाल करतीं हैं. अदालतों में तमाम मामलों में सुनवाई पूरी होने के बाद फैसले सुरक्षित रख लिए जाते हैं. ये फैसले ठंडे बस्तों में ही तो रखे जाते हैं. ताजा फैसला वक्फ बोर्ड कानून का है. आप सरकार हो या अदालत किसी को भी ठोडा बस्ता खोलने के लिए मजबूर नहीं कर सकते. ये सभी निर्णायक संस्थाओं का संवैधानिक अधिकार है. अभी तक इस अधिकार को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी गई. इसीलिए ठंडे बस्ते वजूद में हैं.

हमारे यहाँ जितनी भी छोटी बडी जांच एजेंसियां हैं वे ठंडे बस्तों का इस्तेमाल करतीं हैं. पुलिस, ईडी, सीबीआई सभी को ठंडे बस्ते प्रिय हैं. ये जांच एजेंसियां देश काल, परिस्थिति के अनुरूप ठंडे बस्तों का इस्तेमाल करती आई हैं. आगे भी करतीं रहेंगी. देश के ठंडे बस्ते हमेशा सार्थक साबित होते हैं. ठंडे बस्तों को बांधना और खोलना भी एक ललित कला है. कब किस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालना और कब, किस मुद्दे को ठंडे बस्ते से निकालना है.

 भारत में ऐसे कई मामले हैं, जिनमें आपराधिक, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, और सामाजिक मुद्दों से जुड़े मामले शामिल हैं।1984 सिख विरोधी दंगों के कई मामले आज भी पूरी तरह सुलझे नहीं हैं। कई पीड़ितों को अभी तक न्याय नहीं मिला, और कुछ प्रमुख आरोपी कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण सजा से बचते रहे।हाई-प्रोफाइल हत्याएं जेसिका लाल हत्याकांड (1999) और प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड (1996), लंबे समय तक लंबित रहे। हालांकि इनमें अंततः सजा हुई, लेकिन देरी ने सिस्टम की कमियों को उजागर किया।नदिमार्ग नरसंहार (2003) के मामले में, 2022 में जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने फिर से सुनवाई शुरू करने के निर्देश दिए, क्योंकि यह मामला लंबे समय तक ठंडे बस्ते में रहा। बोफोर्स घोटाला (1980-90): बोफोर्स तोप सौदे में कथित रिश्वत के मामले की जांच दशकों तक चली, लेकिन कोई बड़ा दोषी सजा नहीं पाया। यह मामला समय के साथ ठंडा पड़ गया।2जी स्पेक्ट्रम घोटाला (2008): इस बड़े भ्रष्टाचार मामले में कई आरोपियों को अंततः बरी कर दिया गया, और जांच की धीमी गति ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।कोयला घोटाला (कोलगेट): कोयला ब्लॉक आवंटन में अनियमितताओं के मामले में कई जांचें शुरू हुईं, लेकिन अधिकांश मामलों में ठोस परिणाम नहीं मिले।

आतंकवाद और सुरक्षा से जुड़े मामले जैसे 1993 मुंबई बम धमाके के मामले में हालांकि कुछ मुख्य आरोपियों को सजा हुई, कई सह-आरोपी अभी भी फरार हैं, और कुछ पहलुओं की जांच अधूरी है।पठानकोट हमले (2016)  की जांच में कई सवाल अनुत्तरित रहे, और मामला धीरे-धीरे सुर्खियों से बाहर हो गया.

राजस्थान और अन्य राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के कई मामले, जैसे करौली में दलित युवती की हत्या (2023), अभी तक पूरी तरह सुलझे नहीं हैं।महिलाओं के खिलाफ अपराध: कई बलात्कार और हिंसा के मामले, जैसे निर्भया केस के बाद के कुछ मामले, जांच और सुनवाई में देरी के कारण लंबित रहते हैं।

भारत में इंटरनेट शटडाउन के कई मामले, जैसे कश्मीर में 2019 के बाद हुए शटडाउन, कानूनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, लेकिन कई याचिकाएं कोर्ट में लंबित हैं।दिल्ली शराब घोटाला (2021-22): इस मामले में कुछ आरोपियों को राहत मिली, लेकिन जांच अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई।ठंडे बस्ते में जाने के कारणन्यायिक प्रक्रिया में देरी: भारत में कोर्ट में लाखों मामले लंबित हैं। 2023 तक, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स में करीब 50 लाख मामले पेंडिंग थे।जांच एजेंसियों की सुस्ती: सीबीआई, एनआईए जैसी एजेंसियों पर संसाधनों की कमी और राजनीतिक दबाव के आरोप लगते हैं।साक्ष्यों का अभाव: कई मामलों में साक्ष्य एकत्र करने में देरी या गवाहों का सहयोग न मिलना।राजनीतिक हस्तक्षेप: कुछ मामलों में राजनीतिक प्रभाव के कारण जांच रुक जाती है।वर्तमान स्थितिकई संगठन और कार्यकर्ता इन मामलों को फिर से उठाने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, 2024 में दलित और आदिवासी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण से जुड़े फैसले के खिलाफ भारत बंद का आह्वान किया, जिससे कुछ पुराने मुद्दों पर फिर से ध्यान गया।

यानि ठंडे बस्तों की कथा अनंत है, अनादि है. मै इसे यहीं समाप्त करता हूँ यानि ठंडे बस्ते में डालता हूँ. शुक्र मनाइये कि लालफीताशाही की तरह अभी देश में ठंडा बस्ताशाही जैसी कोई चीज मुहावरा नहीं बनी है.

@ राकेश अचल

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